महाभारत वन पर्व अध्याय 253 श्लोक 1-21

त्रिपच्‍चाशदधिकद्विशततम (253) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


भीष्म का कर्ण की निन्‍दा करते हुए दुर्योधन को पाण्‍डवों से संधि करने का परामर्श देना, कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्‍वजय के लिये प्रस्‍थान

जनमेजय बोले- मुने! जब महात्‍मा पाण्‍डव उस वन में निवास करते थे, उन दिनों महान् धनुर्धर नरश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र-पुत्रों ने क्‍या किया? सूर्यपुत्र कर्ण, महाबली शकुनि, भीष्म, द्रोण तथा कृपाचार्य -इन सब ने कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताने की कृपा करें।

वैशम्‍पायन जी ने कहा- महाराज! पाण्‍डवों द्वारा गन्‍धर्वों से छुटकारा मिल जाने पर जब दुर्योधन विदा होकर हस्तिनापुर पहुँच गया और पाण्‍डव जाकर पूर्ववत् वन में ही रहने लगे, तब भीष्म जी ने धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन से यह बात कही- ‘तात! तुम्‍हारे तपोवन जाते समय जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया था, वही आज भी कह रहा हूँ। मुझे तुम्‍हारा वहाँ जाना अच्‍छा नहीं लगा और वहाँ जाकर तुमने जो कुछ किया, वह भी पसंद नहीं आया। वीर! शत्रुओं ने तुम्‍हें वहाँ बलपूर्वक बंदी बना लिया और धर्मज्ञ पाण्‍डवों ने तुम्‍हें उस संकट से छुड़ाया है। क्‍या अब भी तुम्‍हें लज्‍जा नहीं आती। गान्‍धारीनन्‍दन! सेना सहित तुम्‍हारे सामने ही सूतपुत्र कर्ण गन्‍धर्वों से भयभीत हो युद्धभूमि से भाग निकला। राजेन्‍द्र! राजकुमार! जब सेना‍ सहित तुम चीखते-चिल्‍लाते रहे, उस समय महात्‍मा पाण्‍डवों ने जो पराक्रम कर दिखाया था, वह भी तुमने प्रत्‍यक्ष देखा है। महाबाहो! उस समय खोटी बुद्धि वाले सूतपुत्र कर्ण का पराक्रम भी तुमसे छिपा नहीं था। नृपश्रेष्‍ठ! धर्मवत्‍सल! मेरा तो ऐसा विश्‍वास है कि धनुर्वेद, शौर्य और धर्माचरण में कर्ण पाण्‍डवों की अपेक्षा चौथाई योग्‍यता भी नहीं रखता है। अत: संधिवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ नरेश! मैं तो इस कुल के अभ्‍युदय के लिये उन महात्‍मा पाण्‍डवों के साथ संन्धि कर लेना ही उचित समझता हुँ’।

राजन्! भीष्म के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन हंस पड़ा और शकुनि के साथ सहसा वहाँ से अन्‍यत्र चला गया। महाबली दुर्योधन को अन्‍यत्र गया जान कर्ण और दु:शासन अदि माहन् धनुर्धरों ने उसका अनुसरण किया। राजन्! उन सबको वहाँ से प्रस्‍थान करते देख कुरुकुल-पितामह भीष्म लज्जित होकर अपने आवास स्‍थान को चले गये। महाराज! भीष्म के चले जाने पर राजा दुर्योधन फिर उसी स्‍थान पर लौट आया और अपने मन्त्रियों के साथ गुप्‍त मन्‍त्रणा करने लगा- ‘मित्रो! क्‍या करने से हम लोगों की भलाई होगी? हमारे लिये कौन-सा कार्य शेष रह गया है? कैसे करने से हमारा कार्य शुभ परिणामजनक होगा? क्‍या करने में हमारा हित है? आज इसी विषय पर हम लोगों को विचार करना है’?

कर्ण बोला- कुरुकुलरत्‍न दुर्योधन! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उस पर ध्‍यान दो। भीष्म सदा हमारी निन्‍दा और पाण्‍डवों की प्रशंसा करते रहते हैं। महाबाहो! वे तुम्‍हारे प्रति द्वेष होने से मुझसे भी द्वेष रखते हैं। नरेश्‍वर! तुम्‍हारे सामने वे सदा मेरी निन्‍दा ही किया करते हैं। भारत! तुम्‍हारे सामने भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसे मैं सहन नहीं कर सकता। शत्रुदमन! भरतकुलनन्‍दन! उन्‍होंने जो पाण्‍डवों का यश गाया और तुम्‍हारी निन्‍दा की है, यह मेरे लिये असह्य है। अत: तुम मुझे सेवक, सेना तथा सवारियों के साथ दिग्विजय करने की आज्ञा दो। राजन्! मैं पर्वत, वन और काननों सहित सारी पृथ्‍वी को जीत लूँगा। जिस भूमि पर चार बलशाली पाण्‍डवों ने मिलकर विजय पायी है, उसे मैं तुम्‍हारे लिये अकेला ही जीत लूँगा, इसमें संशय नहीं है। खोटी बुद्धि वाला कुरुकुलाधम भीष्म मेरे इस पराक्रम को अपनी आँखों देखे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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