सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी ने कहा-भरत श्रेष्ठ! नरेश्वर! गणों में, कुलो में तथा राजाओं में वैर की आग प्रज्वलित करने वाले ये दो ही दोष हैं-लोभ और अमर्ष। पहले एक मनुष्य लोभ का वरण करता है (लोभवश दूसरे का धन लेना चाहता है), तदनन्तर दूसरे के मन में अमर्ष पैदा होता है; फिर वे दोनों लोभ और अमर्षं से प्रभावित हुए व्यक्ति समुदाय, धन और जन की बड़ी भारी हानि उठाकर एक-दूसरे के विनाशक बन जाते हैं। वे भेद लेने के लिये गुप्तचरों को भेजते हैं, गुप्त मन्त्रणाएँ करते तथा सेना एकत्र करने में लग जाते हैं। साम, दाम और भेदनीति के प्रयोग करते हैं, तथा जन-संहार, अपार धनराशि के व्यय एवं अनेक प्रकार के भय उपस्थित करने वाले विविध उपायों द्वारा एक-दूसरे को दुर्बल कर देते हैं। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करने वाले गणराज्य के सैनिकों को भी यदि समय पर भोजन और वेतन न मिले तो भी वे फूट जाते हैं। फूट जाने पर सबके मन एक-दूसरे के विपरीत हो जाते हैं और वे सबके सब भय के कारण शत्रुओं के अधीन हो जाते हैं। आपस में फूट होने से ही संघ या गणराज्य नष्ट हुए हैं। फूट होने पर शत्रु उन्हें अनायास ही जीत लेते हैं; अतः गणों को चाहिये कि वे सदा संघबद्ध-एकमत होकर ही विजय के लिये प्रयत्न करें। जो सामूहिक बल और पुरुषार्थं से सम्पन्न हैं, उन्हें अनायास ही सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करने वाले लोगों के साथ संघ से बाहर के लोग भी मैत्री स्थापित करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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