महाभारत वन पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-19

सप्तदशाधिकशततम (117) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


विभिन्न तीर्थों की महिमा और राजा उशीनर की कथा का आरम्भ

लोमश जी कहते हैं- भारत! यहाँ शरीर छूट जाने पर मनुष्‍य स्वर्गलोक में जाते हैं; इसलिये हजारों इस तीर्थ में मरने के लिये आकर निवास करते हैं। प्राचीन काल में प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करते समय यह आशीर्वाद दिया था कि जो मनुष्‍य यहाँ मरेंगे, वे स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर लेंगे। यह रमणीय, दिव्य और तीव्र प्रवाह वाली सरस्वती नदी है और यह सरस्वती का विनशन नामक तीर्थ है। यह निषादराज का द्वार है। वीर युधिष्ठिर! उन निषादों के ही संसर्ग दोष से सरस्वती नदी यहाँ इसलिये पृथ्वी के भीतर प्रविष्‍ट हो गयी कि निषाद मुझे जान न सकें। यह चमसोद्भेद तीर्थ है; जहाँ सरस्वती पुन: प्रकट हो गयी है। यहाँ समुद्र में मिलने वाली सम्पूर्ण पवित्र नदियां इसके सम्मुख आयी हैं। शत्रुदमन! यह सिन्धु का महान तीर्थ है, जहाँ जाकर लोपामुद्रा ने अपने पति अगस्त्य मुनि का वरण किया था।

सूर्य के समान तेजस्वी नरेश! यह प्रभासतीर्थ[1] प्रकाशित हो रहा है, जो इन्द्र को बहुत प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र सब पापों का नाश करने वाला और परम पवित्र है। यह विष्‍णुपद नाम वाला उत्तम तीर्थ दिखायी देता है तथा वह परम पावन और मनोरम विपाशा (व्यास) नदी है। यहीं भगवान वसिष्ठ मुनि पुत्रशोक से पीड़ि‍त हो अपने शरीर को पाशों से बांधकर कूद पडे थे, परंतु पुन: विपाश (पाशमुक्त) होकर जल से बाहर निकल आये। शत्रुदमन! यह पुण्यमय काश्मीरमण्डल है, जहाँ बहुत-से महर्षि‍ निवास करते हैं। तुम भाइयों सहित इसका दर्शन करो। भारत! यह वही स्थान है, जहाँ उत्तर के समस्त ऋषि‍, नहुषकुमार ययाति, अग्नि और काश्यप का संवाद हुआ था। महाराज! यह मानसरोवर का द्वार प्रकाशित हो रहा है। इस पर्वत के मध्य भाग में परशुराम जी ने अना आश्रम बनाया था।

युधिष्‍ठि‍र! परशुराम जी सर्वत्र विख्यात हैं। वे सत्यपराक्रमी हैं। उनके इस आश्रम का द्वार विदेह देश के उत्तर में है। यह बवंडर (वायु का तुफान) भी उनके इस द्वार का कभी उल्लंघन नहीं कर सकता (फिर औरों की तो बात ही क्या है)। नरश्रेष्ठ! इस देश में दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि यहाँ निवास करने वाले साधक को युग के अन्त में पार्षदों तथा पार्वती सहित इच्छानुसार रूप धारण करने वाले भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस सरोवर के तट पर चैत्र मास में कल्याणकामी याजक पुरुष अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा परिवार सहित पिनाकधारी भगवान शिव की अराधना करते हैं।

इस तालाब में श्रद्धापूर्वक स्नान एवं आचमन करके पापमुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकों में जाता है; इसमें संशय नहीं है। यह सरोवर उज्जानक नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान स्कन्द तथा अरुन्धती सहित महर्षि‍ वसिष्ठ ने साधना करके सिद्धि एवं शान्ति प्राप्त की है। यह कुशवान नामक ह्नद है, जिसमें जिसमें कुशेशय नाम वाले कमल खिले रहते हैं। यहीं रुक्मिणी देवी का आश्रम है, जहाँ उन्होंने क्रोध को जीतकर शांति का लाभ किया था। पांडुनंदन! महाराज! तुमने जिसके विषय में यह सुन रखा है कि वह योगसिद्धि का संक्षि‍प्त स्वरूप है-जिसके दर्शनमात्र से समाधिरूप फल की प्राप्ति हो जाती है, उस भृगुतुंग नामक महान पर्वत का अब तुम दर्शन करोगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'प्रभास’ की जगह ‘हाटक’ पाठभेद भी मिलता है।

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