षडधिकद्विशतत (206) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
परमात्मतत्व का निरूपण मनु-बृहस्पति-संवाद की समाप्ति मनु जी कहते हैं- बृहस्पते! जिस समय मनुष्य शब्द आदि पाँच विषयों सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और मन को काबू में कर लेता है, उस समय वह मणियों में ओतप्रोत तागे के समान सर्वत्र व्याप्त परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है। जैसे वही तागा सोने की लड़ियों में, मोतियों में, मूँगों में और मिट्टी की माला के दानों में ओतप्रोत होकर सुशोभित होता है, उसी प्रकार एक ही परमात्मा गौ, अश्व, मनुष्य, हाथी, मृग और कीट-पंतग आदि समस्त शरीरों में व्याप्त है! विषयासक्त जीवात्मा अपने-अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है। यह मनुष्य जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है, उस-उस शरीर से उसी-उसी कर्म का फल भोगता है। जैसे भूमि में एक ही रस होता है तो भी उसमें जैसा बीज बोया जाता है, उसी के अनुसार वह उसमें रस उत्पन्न करती है, उसी तरह अन्तरात्मा से ही प्रकाशित बुद्धि पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार एक ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होती है। मनुष्य को पहले तो विषय का ज्ञान होता है; फिर उसके मन में उसे पाने की इच्छा उत्पन्न होती है। उसके बाद 'इस कार्य को सिद्ध करूँ' यह निश्चय और प्रयत्न आरम्भ होता है। फिर कर्म सम्पन्न होता और उसका फल मिलता है। इस प्रकार फल को कर्मस्वरूप समझे। कर्म को जानने में आने वाले पदार्थों का रूप समझे और ज्ञेय को ज्ञानरूप समझे तथा ज्ञान का स्वरूप कार्य और कारण जाने। ज्ञान, फल, ज्ञेय और कर्म इन सबका अन्त होने पर जो प्राप्तव्य फलरूप से शेष रहता है, उसको ही तुम ज्ञेयमात्र में व्याप्त होकर स्थित हुआ ज्ञानस्वरूप परमात्मा समझो। उस परम महान तत्त्व को योगिजनही देख पाते हैं। विषयों में आसक्त अज्ञानी मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान उस परब्रह्म परमात्मा को नहीं देख सकते हैं। इस जगत तें पृथ्वी के रूप में जल का ही रूप महान है। जल से तेज अति महान है, तेज से पवन महान है, पवन से आकाश महान है, आकाश से मन परतर है अर्थात सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान है। मन से बुद्धि महान है, बुद्धि से काल अर्थात प्रकृति महान है और काल से भगवान विष्णु अनन्त, सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान हैं। यह सारा जगत उन्हीं की सृष्टि है। उन भगवान विष्णु का न कोई आदि है, न मध्य है और न अन्त ही है। वे आदि, मध्य और अन्त से रहित होने के कारण ही अविनाशी हैं; अत एवं सम्पूर्ण दु:खों से परे हैं, क्योंकि विनाश शील वस्तु ही दु:ख रूप हुआ करती है। अविनाशी विष्णु ही परब्रह्म कहे जाते हैं। वे ही परमधाम और परमपद हैं। उन्हें प्राप्त कर लेने पर जीव काल के राज्य से मुक्त हो मोक्षधाम में स्थित हो जाते हैं। ये वध्य जीव गुणों में अर्थात गुणों के कार्यरूप शरीर आदि के सम्बन्ध से व्यक्त हो रहे है; परंतु परमात्मा निर्गुण होने के कारण उनसे अत्यन्त परे हैं। जो निवृत्तिरूप धर्म (निष्काम कर्म ) हैं, वह अक्षय पद (मोक्ष)की प्राप्ति कराने में समर्थ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद – ये अध्ययनकाल में शरीर के आश्रित रहते हैं और जिह्वा के अग्रभाग पर प्रकट है; इसलिये वे यत्नसाध्य और विनाशशील हैं अर्थातइनका लुप्त होना स्वाभाविक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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