महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 204 श्लोक 1-15

चतुरधिकद्विशततम (204) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

आत्‍मा एवं परमात्‍मा के साक्षात्‍कार का उपाय तथा महत्त्व

मनु कहते हैं- बृहस्‍पते! जैसे स्‍वप्‍नावस्‍था में यह स्‍थूल शरीर तो सोया रहता है और सूक्ष्‍म शरीर विचरण करता रहता हैं, उसी प्रकार इस शरीर को छोड़ने पर यह ज्ञानस्‍वरूप जीवात्‍मा या तो इन्द्रियों के सहित पुन: शरीर ग्रहण कर लेता हैं या सुषुप्ति की भाँति मुक्‍त हो जाता है। जिस प्रकार मनुष्‍य स्‍वच्‍छ और स्थिर जल में नेत्रों द्वारा अपना प्रतिबिम्‍ब देखता है, वैसे ही मनसहित इन्द्रियों के शुद्ध एवं स्थिर हो जाने पर वह ज्ञानदृष्टि से ज्ञेयस्‍वरूप आत्‍मा का साक्षात्‍कार कर सकता है। वही मनुष्‍य हिलते हुए जल में जैसे अपना रूप नहीं देख पाता, उसी प्रकार मनसहित इन्द्रियों के चंचल होने पर वह बुद्धि में ज्ञेयस्‍वरूप आत्‍मा का दर्शन नहीं कर सकता। अविवेक से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और उस भ्रष्ट बुद्धि से मन राग आदि दोषों में फँस जाता है। इस प्रकार मन के दूषित होने से उसके अधीन रहने वाली पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी दूषित हो जाती है। जिसको अज्ञान से ही तृप्ति हो रही है, वह मनुष्‍य विषयों के अगाध जल में सदा डूबा रहकर भी कभी तृप्त नहीं होता। वह जीवात्‍मा प्रारब्‍धाधीन हुआ विषय-भोगों की इच्‍छा के कारण बारंबार इस संसार में आता और जन्‍म ग्रहण करता है। पाप के कारण ही संसार में पुरुष की तृष्‍णा का अन्‍त नहीं होता। जब पापों की समाप्ति हो जाती है, तभी उसकी तृष्‍णा निवृत्त हो जाती है। विषयों के संसर्ग से, सदा उन्‍हीं में रचे-पचे रहने से तथा मन के द्वारा साधन के विपरीत भोगों की इच्‍छा रखने से पुरुष को परब्रह्मा परमात्‍मा की प्राप्ति नहीं होती है। पाप-कर्मों का क्षय होने से ही मनुष्‍यों के अन्‍त:करण में ज्ञान का उदय होता है। जैसे स्‍वच्‍छ दर्पण में ही मानव अपने प्रतिबिम्‍ब को अच्‍छी तरह देख पाता है। विषयों की ओर इन्द्रियों के फैले रहने से ही मनुष्‍य दुखी होता है और उन्‍हीं को सयम रखने से सुखी हो जाता है; इसलिये इन्द्रियों के विषयों से बुद्धि के द्वारा अपने मन को रोकना चाहिये।

इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ हैं, बुद्धि से ज्ञान श्रेष्ठतर है और ज्ञान से परात्‍पर परमात्‍मा श्रेष्ठ है। अव्‍यक्‍त परमात्‍मा से ज्ञान प्रसारित हुआ है। ज्ञान से बुद्धि और बुद्धि से मन प्रकट हुआ है। वह मन ही श्रोत्र आदि इन्द्रियों से युक्‍त होकर शब्‍द आदि विषयों का भली-भाँति अनुभव करता है। जो पुरुष शब्‍द आदि विषयों को, उनके आश्रयभूत सम्‍पूर्ण व्‍यक्‍त तत्‍वों को, स्‍थूलभूतों और प्राकृत गुण समुदायों को त्‍याग देता है अर्थात उनसे सम्‍बन्‍ध विच्‍छेद कर लेता है, वह उन्‍हें त्‍यागकर अमृतस्‍वरूप परमात्‍मा को प्राप्त हो जाता है। जैसे सूर्य उदित होकर अपनी किरणों को सब ओर फैला देता है और अस्‍त होते समय उन समस्‍त किरणों को अपने भीतर ही समेट लेता है, उसी प्रकार जीवात्‍मा देह में प्रविष्ट होकर फैली हुई इन्द्रियों की वृत्तिरूपी किरणों द्वारा पाँचों विषयों को ग्रहण करता है और शरीर को छोड़ते समय उन सबको समेटकर अपने साथ लेकर चल देता है। जिसने प्रवृत्ति प्रधानपुण्‍य-पापमय कर्म का आश्रय लिया है, वह जीवात्‍मा कर्मों द्वारा कर्म-मार्ग पर बांरबार लाया जाकर अर्थात संसार-चक्र में भ्रमाया जाकर सुख-दु:ख कर्म-फल को प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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