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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डव पक्ष की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
- संजय कहते हैं- राजन! उलूक ने विषधर सर्प के समान क्रोध में भरे हुए अर्जुन को अपने वाग्बाणों से और भी पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। (1)
- उसकी बात सुनकर पाण्डवों को बड़ा रोष हुआ। एक तो वे पहले से ही अधिक क्रुद्ध थे, दूसरे जुआरी शकुनि के बेटे ने भी उनका बड़ा तिरस्कार किया। (2)
- वे आसनों से उठकर खडे़ हो गये और अपनी भुजाओं को इस प्रकार हिलाने लगे, मानो प्रहार करने के लिये उद्यत हों। वे विषैले सर्पों के समान अत्यन्त कुपित हो एक-दूसरे की ओर देखने लगे। (3)
- भीमसेन ने फुफकारते हुए विषधर नाग की भाँति लम्बी साँसें खींचते हुए सिर नीचे किये लाल नेत्रों से भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखा। (4)
- वायुपुत्र भीम को क्रोध से अत्यन्त पीड़ित और आहत देख दशाईकुलभूषण श्रीकृष्ण ने उलूक से मुस्कराते हुए से कहा- (5)
- जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक! तू शीघ्र लौट जा और दुर्योधन से कह दे कि पाण्डवों ने तुम्हारा संदेश सुना और उसके अर्थ को समझकर स्वीकार किया। युद्ध के विषय में जैसा तुम्हारा मत है, वैसा ही हो, (6)
- नृपश्रेष्ठ! ऐसा कहकर महाबाहु केशव ने पुन: परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर की ओर देखा। (7)
- फिर उलूक ने भी समस्त सृंजयवंशी क्षत्रिय समुदाय, यश्स्वी श्रीकृष्ण तथा पुत्रों सहित द्रुपद और विराट के समीप सम्पूर्ण राजाओं की मण्डली में शेष बातें कहीं। उसने विषधर सर्प के सदृश कुपित हुए अर्जुन को पुन: अपने बाग्बाणों से पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सब बातें कह सुनायीं। साथ ही श्रीकृष्ण आदि अन्य सब लोगों से कहने के लिये भी उसने जो-जो संदेश दिये थे, उन्हें भी उन सबको यथावत रूप से सुना दिया। (8-10)
- उलूक के कहे हुए उस पापपूर्ण दारुण वचन को सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन को बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने हाथ से ललाट का पसीना पोंछा (11)
- नरेश्वर! अर्जुन को उस अवस्था में देखकर राजाओं की वह समिति तथा पाण्डव महारथी सहन न कर सके। (12)
- राजन! महात्मा अर्जुन तथा श्रीकृष्ण के प्रति आक्षेपपूर्ण वचन सुनकर वे पुरुषसिंह शूरवीर क्रोध से जल उठे। (13)
- धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, महारथी सात्यकि, पाँच भाई केकयराजकुमार, राजा धृष्टकेतु, पराक्रमी भीमसेन तथा महारथी नकुल-सहदेव सबके सब क्रोध से लाल आंखे किये अपने आसनों से उछलकर खडे़ हो गये और अंगद, पारिहार्य [1] तथा केयूरों से विभूषित एवं लाल चन्दन से चर्चित अपनी सुन्दर भुजाओं को थमाकर दाँतों पर दाँत रगड़ते हुए ओठों के दोनों कोने चाटने लगे। (14-16)
- उनकी आकृति और भाव को जानकर कुन्तीपुत्र वृकोदर बड़े वेग से उठे और क्रोध से जलते हुए के समान सहसा आँखे फाड़-फाड़कर देखते, कटकटाते और हाथ से हाथ रगड़ते हुए उलूक से इस प्रकार बोले- (17-18)
- ओ मूर्ख! दुर्योधन ने तुझसे जो कुछ कहा है, वह तेरा वचन हमने सुन लिया। मानो हम असमर्थ हों और तू हमें प्रोत्साहन देने के निमित्त यह सब कुछ कह रहा हो। (19)
- मूर्ख उलूक! अब तू मेरी कही हुई दु:सह बातें सुन और समस्त राजाओं की मण्डली में सूतपुत्र कर्ण और अपने दुरात्मा पिता शकुनि के सामने दुर्योधन को सुना देना- (20-21)
- दुराचारी दुर्योधन! हम लोगों ने सदा अपने बड़े भाई को प्रसन्न रखने की इच्छा से तेरे बहुत से अत्याचारों को चुपचाप सह लिया है; परंतु तू इन बातों को अधिक महत्व नहीं दे रहा है। (22)
- बुद्धिमान धर्मराज ने कौरव कुल के हित की इच्छा से शान्ति चाहने वाले भगवान श्रीकृष्ण को कौरवों के पास भेजा था। (23)
- परंतु तू निश्चय ही काल से प्रेरित हो यमलोक में जाना चाहता है इसलिये संधि की बात नहीं मान सका। अच्छा, हमारे साथ युद्ध में चल। कल निश्चय ही युद्ध होगा। (24)
- पापात्मन! मैंने भी जो तेरे और तेरे भाइयों के वध की प्रतिज्ञा की है, वह उसी रूप में पूर्ण होगी। इस विषय में तुझे कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। (25)
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