महाभारत वन पर्व अध्याय 157 श्लोक 1-22

सप्‍तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्‍याय: वन पर्व (जटासुरवध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


जटासुर के द्वारा द्रौपदी सहित युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव का हरण तथा भीमसेन द्वारा जटासुर का वध

वैशम्पायन जी कहतें हैं- जनमेजय! तदनन्तर पर्वतराज गन्धमादन पर सब पाण्डव अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करते हुए ब्राह्मणों के साथ निःशंक रहने लगे। उन्हें पहुँचाने के लिये आये हुए राक्षस चले गये। भीमसेन का पुत्र घटोत्कच भी विदा हो गया। तत्पश्चात् एक दिन की बात है, भीमसेन की अनुपस्थिति में अकस्मात् एक राक्षस ने धर्मराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी को हर लिया। वह ब्राह्मण के वेश में प्रतिदिन उन्हीं के साथ रहता था और सब पाण्डवों से कहता था कि 'मैं सम्पूर्ण शास्त्रों में श्रेष्ठ और मंत्र-कुशल ब्राह्मण हूँ।' वह कुन्तीकुमारों के तरकस और धनुष को भी हर लेना चाहता था और द्रौपदी का अपहरण करने के लिये सदा अवसर ढूंढता रहता था। उस दुष्टात्मा एवं पापबुद्धि राक्षस का नाम जटासुर था। जनमेजय! पाण्डवों को आनन्द प्रदान करने वाले युधिष्ठिर अन्य ब्राह्मणों की तरह उसका भी पालन-पोषण करते थे। परंतु राख में छिपी हुई आग की भाँति उस पापी के असली स्वरूप को वे नहीं जानते थे।

शत्रुसूदन! हिंसक पशुओं को मारने के लिये भीमसेन के आश्रम से बाहर चले जाने पर उस राक्षस ने देखा कि घटोत्कच अपने सेवकों सहित किसी अज्ञात दिशा को चला गया, लोमश आदि महर्षि ध्यान लगाये बैठे हैं तथा दूसरे तपोधन स्नान करने और फूल लाने के लिये कुटियों से बाहर निकल गये हैं, तब उस दुष्टात्मा ने विशाल, विकराल एवं भयंकर दूसरा रूप धारण करके पाण्डवों के सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र, द्रौपदी तथा तीनों पाण्डवों को भी लेकर वहां से प्रस्थान कर दिया। उस समय पाण्डुकुमार सहदेव प्रयत्न करके उस राक्षस की पकड़ से छूट गये और पराक्रम करके म्यान से निकाली हुई अपनी तलवार को भी उससे छुड़ा लिया। फिर वे महाबली भीमसेन जिस मार्ग से गये थे, उधर ही जाकर उन्हें जोर-जोर से पुकारने लगे। इधर जिन्हें वह जटासुर हरकर लिये जा रहा था, वे धर्मराज युधिष्ठिर उससे इस प्रकार बोले- 'अरे मूर्ख! इस प्रकार (विश्वासघात करने से) तो तेरे धर्म का ही नाश हो रहा हैं। किंतु उधर तेरी दृष्टि नहीं जाती है। दूसरे भी जहाँ कहीं मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों की योनि में स्थित प्राणी हैं, वे सभी धर्म पर दृष्टि रखते हैं। राक्षस तो (पशु-पक्षी की अपेक्षा भी) विशेष रूप से धर्म का विचार करते हैं। राक्षस धर्म के मूल हैं। वे उत्‍तम धर्म का ज्ञान रखते हैं। इन सब बातों का विचार करके तुझे हम लोगों के समीप ही रहना चाहिये। राक्षस! देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु-पक्षी, तिर्यग्योनि के सभी प्राणी और कीड़े-मकोड़े, चींटी आदि भी मनुष्यों के आश्रित हो जीवन-निर्वाह करते हैं। इस दृष्टि से तू भी मनुष्यों से ही जीविका चलाता है। इस मनुष्य लोक की समृद्धि से ही सब लोगों का लोक समृद्धिशाली होता है। यदि इस लोक की दशा शोचनीय हो तो देवता भी शोक में पड़ जाते हैं। क्योकि मनुष्य द्वारा हव्य और कव्य से विधिपूर्वक पूजित होने पर उनकी वृद्धि होती है। राक्षस! हम लोग राष्ट्र के पालक और संरक्षक हैं। हमारे द्वारा रक्षित न होने पर राष्ट्र को कैसे समृद्धि प्राप्त होगी और कैसे उसे सुख मिलेगा?

राक्षस को भी उचित है कि वह बिना अपराध के कभी किसी राजा का अपमान न करे। नरभक्षी निशाचर! तेरे प्रति हम लोगों की ओर से थोड़ा-सा भी अपराध नहीं हुआ है। हम देवता आदि को समर्पित करके बचे हुए प्रसाद स्वरूप अन्न का यथाशक्ति गुरुजनों ओर ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। गुरुजनों तथा ब्राह्मणों के सम्मुख हमारा मस्तक सदा झुका रहता है। किसी भी पुरुष को कभी अपने मित्रों और विश्वासी पुरुषों के साथ विद्रोह नहीं करना चाहिये। जिनका अन्न खाये और जहाँ अपने को आश्रय मिला हो, उनके साथ भी द्रोह या विश्वासघात करना उचित नहीं है। तू हमारे आश्रय में हम लोंगो से सम्मानित होकर सुखपूर्वक रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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