महाभारत विराट पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-13

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

बृहन्नला को सारथि बनाकर राजकुमार उत्तर का रणभूमि की ओर प्रस्थान

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुमारी उत्तरा सेने के माला और मोरपंचा का श्रृंगार धारण किये थी। उसका अंगकान्ति कमलदलकी सी आभा वाली लक्ष्मी को भी लज्जित कर रही थी। उसकी कमर यज्ञ की वेदी के समान सूक्ष्म थी। शरीर से भी वह पतली ही थी। उसके सभी अंग शुभ लक्षणों से युक्त थे। उसने कटिप्रदेश में मणियों की बनी हुई विचित्र करधनी पहन रक्खी थी। मत्स्यराज की वह यशस्विनी कन्या अनुपम शोभा से प्रकाशित हो रही थी।। बड़ों की आज्ञा मानने वाली कुमारी उत्तरा बड़े भाई के भेजने से बड़ी उतावली के साथ नृत्यशाला में गयी; मानो चपला मेघमाला में विलीन हो गयी हो। उसके नेत्रों की टेढ़ी-टेढ़ी बरौनियाँ बड़ी भली मालूम होती थीं।

उसकी परस्पर सटी हुई जाँघें हाथी की सूँड़ के समान सुशोथ्त होती थीं, दाँत चमकीले और मनोहर थे। शरीर का मध्यभाग बड़ा सुहावना था। वह अनिन्द्यसुन्दरी सुन्दर हार धारण किये उन कुन्तीनन्दन अर्जुन के पास पहुँचकर गजराज के समीप गयी हुई हथिनी के समान शोभा पा रही थी। विराटराजकुमारी उत्तरा स्त्रियों में रत्न स्वरूपा और मन को प्रिय लगने वाली थी। वह उस राजभावन में इन्द्र की साम्राज्यलक्ष्मी के समान सम्मानित थी। उसके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह यशस्विनी बाला सामने से देखने ही योग्य थी। वह अर्जुन से प्रेम पूर्वक बोली- सुवर्ण के समान सुन्दर एवं गौर त्वचा तथा सटी जाँघों वाली कुमारी उत्तरा को देखकर अर्जुन ने पूछा- ‘सुवर्ण की माला धारण करने वाली मृगलोनि! आज तुम्हारा मुख प्रसन्न क्यों नहीं है ? अंगने! मुझे शीघ्र सब बातें ठीक-ठीक बताओ’।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! विशाल नेत्रों वाली अपनी सखी राजकुमारी उत्तरा की ओर देखकर अर्जुन ने हँसते हुए जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब वह राजपुत्री नरश्रेष्ठ अर्जुन के समीप जा अपना प्रेम प्रकट करती हुई सखियों के बीच में इस प्रकार बोली- ‘बृहन्नले! हमारे राष्ट्र की गौओं को कौरव हाँककर लिये जा रहे हैं। अतः उन्हें जीतने के लिये मेरे भैय्या धनुष धारण करके जाने वाले हैं। ‘थोड़े ही दिन हुए, उनके रथ का सारथि एक युद्ध में मारा गया। इस कारण कोई ऐसा योग्य सूत नहीं है, जो उनके सारथि का काम सँभाल सके। ‘बृहन्नले! वे सारथि ढूँढने का प्रयत्न कर रहे थे, इतने में ही सैरन्ध्री ने पहुँचकर यह बताया कि तुम अश्वविद्या में कुशल हो। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो। तुम्हारी सहायता से उन पाण्डवशिरोमणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है। ‘अतः बृहन्नले! इसके पहले कि कौरव लोग हमारी गौओं को बहुत दूर लेकर जायँ, तुम मेरे भाई के सारथि का कार्य अच्छी तरह कर दो। ‘सखी! मैं बड़े प्रेम से यह बात कह रही हूँ। यदि आज इतना अनुरोध करने पर भी तुम मेरी बात नहीं मानोगी, तो मैं प्राण त्याग दूँगी’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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