महाभारत विराट पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-10

एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


कृपाचार्य का कर्ण को फटकारते हुए युद्ध के विषय में अपना विचार बताना

तदनन्तर कृपपाचार्य ने कहा - राधा नन्दन! युद्ध के विषय में तुम्हारा विचार सदा ही क्रूरतापूर्ण रहता है। तुम न जो कार्यों के स्वरूप को ही जानते हो और न उसके परिणाम का ही विचार करते हो। मैंने शास्त्र का आश्रय लेकर बहुत सी मायाओं का चिनतन किया है; किंतु उन सबमें युद्ध ही सर्वाधिक पापपूर्ध कर्म है - ऐसा प्राचीन विद्वान् बताते हैं। देश और काल के अनुसार जो युद्ध किया जाता है, वह विजय देने वाला होता है; किंतु जो अनुपयुक्त काल में किया जाता है, वह युद्ध सफल नहीं होता। देश ओर काल के अनुसार किया हुआ पराक्रम ही कल्याणकारी होता है। देश और काल की अनुकूलता होने से ही कार्यों का फल सिद्ध होता है। विद्वान् पुरुष रथ बनाने वाले ( सूत ) की बात पर ही सारा भार डालकर स्वयं देश काल का विचार किये बिना युद्ध आदि का निश्चय नहीं करते[1]। विचार करने पर तो यही समझ में आता है कि अर्जुन के साथ युद्ध करना हमारे लिये कदापि उचित नहीं है; ( क्योंकि वे अकेले भी हमें परास्त कर सकते हैं )। अर्जुन ने अकेले ही उत्तर कुरुदेश पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। अकेले ही खाण्डव वन देकर अग्नि को तृप्त किया। उन्होंने अकेले ही पाँच वर्ष तक कठोर तप करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। अकेले ही सुभद्रा को रथ पर बिठाकर उसका अपहरण किया औश्र इन्द्र युद्ध के लिये श्रीकृष्ण को भी ललकारा।

अर्जुन ने अकेले ही किरात रूप में सामने आये हुए भगवान् शंकर से युद्ध किया। इसी वनवास की घटना है, जब जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया था, उस समय भी अर्जुन ने अकेले ही उसे हराकर द्रौपदी को उसके हाथ से छुड़ाया था। डनहोंने अकेले ही पाँच वर्ष तक स्वर्ग में रहकर साक्षात् इन्द्र से अस्त्र शस्त्र सीखे हैं और अकेले ही सब शत्रुओं को जीतकर कुरुवंश का यश बढ़ाया है। शत्रुओं का दमन करने वाले महावीर अर्जुन ने कौरवों की घोष यात्रा के समय युद्ध में गन्धर्वों की दुर्जय सेना का वेग पूर्वक सामना करते हुए अकेले ही गन्धर्वराज चित्रसेन पर विजय पायी थी। निवातकवच और कालखन्ज आदि दानवगण तो देवताओं के लिये भी अवध्य थे, किंतु अर्जुन ने अकेले ही उन सबकों युद्ध में मार गिराया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे कोई रथ बनाने वाला कारीगर रथ लाकर यह कहे कि मैंने इस रथ का निर्माण किया है। इसका प्रत्येक अंग सुदृढ़ है। इस पर बैठकर युद्ध करने से तुम देवताओं पर भी सर्वथा विजय पा सकोगे। तो केवल उसके इस कहने पर भरोसा करके कोई बुद्धिमान् पुरुष युद्ध के लिये तैयार न हो जायगा। उसी प्रकार कर्ण! केवल तुम्हारे इस डींग मारने पर भरोसा करके देश काल आदि का विचार किये बिना हम लोगों का युद्ध के लिये उद्यत होना ठीक नहीं है, यही कृपाचार्य के उपर्युक्त कथन का अभिप्राय है।

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