एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी ने कहा- महाबाहों! प्रजा के योग, क्षेम, उत्तम वृष्टि, व्याधि, मृत्यु और भय-इन सबका मूल कारण राजा ही है। भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन सबका मूल कारण राजा ही है, ऐसा मेरा विचार है। इसकी सत्यता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। प्रजाओं के लिये दोष उत्पन्न करने वाले ऐसे भयानक समय के आने पर ब्राह्मण को विज्ञान बल का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस विषय में चाण्डाल के घर में चाण्डाल और विश्वामित्र का जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण लोग दिया करते हैं। त्रेता और द्वापर के संधि की बात है, दैववश संसार में बारह वर्षों तक भयंकर अनावृष्टि हो गयी (वर्षा हुई ही नहीं)। त्रेतायुग प्राय: बीत गया था, द्वापर का आरंभ हो रहा था, प्रजाएँ बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जाने से प्रलयकाल-सा उपस्थित हो गया। इन्द्र ने वर्षा बंद कर दी थी, बृहस्पति प्रतिलोम (वक्री) हो गया था, चंद्रमा विकृत हो गया था और वह दक्षिण मार्ग पर चला गया था। उन दिनों कुहासा भी नहीं होता था, फिर बादल कहाँ से उत्पन्न होते। नदियों का जलप्रवाह अत्यन्त क्षीण हो गया और कितनी ही नदियाँ अदृश्य हो गयीं। बड़े-बड़े सरोवर, सरिताएँ, कूप और झरने भी उस दैवविहित अथवा स्वाभाविक अनावृष्टि से श्रीहीन होकर दिखायी ही नहीं देते थें। छोटे-छोटे जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभाव के कारण पौंसलें बंद हो गये। भूतल पर यज्ञ और स्वाध्याय का लोप हो गया। वषट्कार और मांगलिक उत्सवों का कहीं नाम भी नहीं रह गया। खेती और गो रक्षा चौपट हो गयी, बाजार-हाट बंद हो गये। यूप और यज्ञों का आयोजन समाप्त हो गया तथा बड़े-बड़े उत्सव नष्ट हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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