एकाधिकशततम (101) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
अब तुम मुझसे उनके लक्षण सुनो। जिनकी वाणी, नेत्र तथा चाल-ढाल सिंहों या बाघों के समान होती है और जिनकी आँखें कबूतर या गौरैये के समान होती हैं, वे सभी शूरवीर एवं शत्रु सेना को मथ डालने वाले हाते हैं। जिनका कण्ठस्वर मृगों के समान और नेत्र बाघ एवं बैलों के तुल्य होते हैं, ववीर वेगशाली, असावधान और मूर्ख हुआ करते हैं। जिनका कण्ठनाद किंकिणी के समान मधुर हो, वे स्वभाव के बड़े क्रोधी होते हैं। जिनकी गर्जना मेघ के समान, मुख क्रोध युक्त, शरीर ऊँट की तरह तथा नाक और जीभ टेढ़ी हो, वे बहुत दूर तक दौड़ने वाले तथा सुदूरवर्ती लक्ष्य को भी मार गिराने वाले होते हैं। जिनका शरीर बिलाव के समान कुबड़ा तथा सिर के बाल और देह की खाल पतले हाते हैं, वे शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले चंचल और दुर्जय होते हैं। जो गोहटी के समान आँखें बन्द किये रहते हैं, जिनका स्वभाव कोमल होता है तथा जिनके चलने पर घोड़े की टाप पड़ने-जैसी आवाज हाती है, वे मनुष्य युद्ध के पार पहुँच जाते हैं। जिनके शरीर गठीले, छाती चैड़ी और अंग-प्रत्यंग सुडौल होते हैं, जो युद्धमें डटकर खड़े होने वाले हैं, वे वीर पुरुष युद्धका धौसा सुनते ही कुपित हो उठते हैं। उन्हें लड़ने-भिड़ने में ही आनन्द आता है। जिनकी आँखे गहरी हैं अथवा बड़ी होने के कारण निकली हुई-सी प्रतीत होती हैं या जिनके नेत्र पिंगलवर्ण के हैं अथवा जिनकी आँखें नेवलेके समान भूरी-भूरी हैं और जिनके मुख पर भौंहें तनी रहती हैं, ऐसे लक्षणों वाले सभी मनुष्य शूरवीर तथा रणभूमि में शरीर का त्याग करने वाले होते हैं। जिनकी आँखे तिरछी, ललाट ऊँवे और ठोड़ी मांसहीन एवं दुबली-पतली है, जिनकी भुजाओं पर वज्र का और अंगुलियों पर चक्र का चिह्न होता है तथा जिनके शरीर की नस-नाडि़याँ दिखायी देती हैं, वे युद्ध उपस्थित होते ही बड़े वेग से शत्रुओं की सेना में घुस जाते हैं और मतवाले हाथियों के समान शत्रुओं के लिये दुर्जय होते हैं। जिनके केशों के अग्रभाग पीले और छितराये हुए हैं, पसलियाँ, ठोड़ी और मुँह लंबे एवं मोटे हैं, कंधे ऊँचे, गर्दन मोटी और पिण्डली भारी हैं, जो देखने में विमट जान पड़ते हैं, सुग्रीव जाति वाले अश्वों के समान तथा गरुड़ पक्षी की भाँति उद्धत स्वभाव के हैं, जिनके सिर गोल और मुख विशाल हैं, जो बिलाव-जैसा मुख धारण करते हैं तथा जिनके स्वर में कठोरता है, वे बड़े क्रोधी होते हैं और युद्ध में गर्जना करते हुए विचरते हैं। उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं होता। वे घमंड में भरे हुए घोर आकृति वाले दिखायी देते हैं। उनका दर्शन ही बड़ा भयंकर है। ये सब-के-सब अन्त्यज (कोल-भील आदि) हैं, जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते और शरीर का मोह छोड़कर लड़ते हैं। सेना में ऐसे लोगों को सदा पुरस्कार देना चाहिये और इन्हें सदा आगे-आगे रखना चाहिये। ये धैर्यपूर्वक शत्रुओं की मार सहते और उन्हें भी मारते हैं। ये अधर्मी होते हैं धर्म की मर्यादा भंग कर देते हैं इसी तरह ये बारंबार राजा पर भी कुपित हो उठते अतः मीठी -मीठी बातों से समझा-बुझाकर ही काबू में करना चाहिये। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में विजयाभिलाषी राजा का बर्तावविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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