महाभारत वन पर्व अध्याय 306 श्लोक 1-17

षडधिकत्रिशततम (306) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षडधिकत्रिशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


कुन्ती के द्वारा सूर्य देवता का आवाहन तथा कुन्ती-सूर्य संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उन श्रेष्ठ ब्राह्मण के चले जाने पर किसी कारणवश[1] राजकन्या कुन्ती ने मन-ही-मन सोचा- ‘इस मन्त्रसमूह में कोई बल है या नहीं। उन महात्मा ब्राह्मण ने मुझे यह कैसा मन्त्रसमूह प्रदान किया है? उसके बल को मैं शीघ्र ही (परीक्षा द्वारा) जानूँगी’। इस प्रकार सोच-विचार में पड़ी हुई कुन्ती ने अकस्मात् अपने शरीर में ऋतु का प्रादुर्भाव हुआ देखा। कन्यावस्था में ही अपने को रजस्वला पाकर उस बालिका ने लज्जा का अनुभव किया।

तदनन्तर एक दिन कुन्ती अपने महल के भीतर एक बहुमूल्य पलंग पर लेटी हुई थी। उसी समय उसने (खिड़की से) पूर्व दिशा में उदित होते हुए सूर्यमण्डल की ओर दृष्टिपात किया। प्रातःकाल के समय उगते सूर्य की ओर देखने में सुमध्यमा कुन्ती को तनिक भी ताप का अनुभव नहीं हुआ। उसके मन और नेत्र उन्हीं में आसक्त हो गये। उस समय उसकी दृष्टि दिव्य हो गई। उसने दिव्य रूप में दिखायी देने वाले भगवान सूर्य की ओर देखा। वे कवच धारण किये एवं कुण्डलों से विभूषित थे। नरेश्वर! उन्हें देखकर कुन्ती के मन में अपने मन्त्र की शक्ति की परीक्षा करने के लिये कौतूहल पैदा हुआ। तब उस सुन्दरी राजकन्या ने सूर्यदेव का आवाहन किया। उसने विधिपूर्वक आचमन और प्राणायाम करके भगवान दिवाकर का आवाहन किया। राजन्! तब भगवान सूर्य बड़ी उतावली के साथ वहाँ आये। उनकी अंगकान्ति मधु के समान पिंगल वर्ण की थी। भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ग्रीवा शंख के समान थी। वे हँसते हुए से जान पड़ते थे और मस्तक पर बँधा हुआ मुकुट शोभा पाता था। वे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रज्वलित सी कर रहे थे। वे योगशक्ति से अपने दो स्वरूप बनाकर एक से वहाँ आये और दूसरे से आकाश में तपते रहे। उन्होंने कुन्ती को समझाते हुए परम मधुर वाणी में कहा- ‘भद्रे! मैं तुम्हारे मन्त्र के बल से आकृष्ट होकर तुम्हारे वश में आ गया हूँ। राजकुमारी! बताओ, तुम्हारे अधीन रहकर मैं कौन-सा कार्य करूँ? तुम जो भी कहोगी, वही करूँगा’। कुन्ती बोली- 'भगवन्! आप जहाँ से आये हें, वहीं पधारिये। मैंने आपको कौतूहलवश ही बुलाया था। प्रभो! प्रसन्न होइये।'

सूर्य ने कहा- 'तनुमध्यमे! जैसा तुम कह रही हो, उसके अनुसार मैं चला तो जाऊँगा ही; परंतु किसी देवता को बुलाकर उसे व्यर्थ लौटा देना, न्याय की बात नहीं है। सुभगे! तुम्हारे मन में ये संकल्प उठा था कि सूर्यदेव से मुझे एक ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो संसार में अनुपम पराक्रमी तथा जन्म से ही दिव्य कवच एवं कुण्डल से सुशोभित हो। अतः गजगामिनी! तुम मुझे अपना शरीर समर्पित कर दो। अंगने! ऐसा करने से तुन्हें अपने संकल्प के अनुसार तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा। भद्रे! सुन्दर मुस्कान वाली पृथे! तुमसे समागम करके मैं पुनः लौट जाऊँगा; परंतु यदि आज तुम मेरा प्रिय वचन नहीं मानोगी, तो मैं कुपित होकर तुमको, उस मन्त्रदाता ब्राह्मण को और तुम्हारे पिताजी को भी शाप दे दूँगा। तुम्हारे कारण मैं उन सबको जलाकर भस्म कर दूँगा। इसमें संशय नहीं है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में सूर्यदेव ने उस कारण का स्पष्टीकरण किया है।

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