महाभारत वन पर्व अध्याय 295 श्लोक 1-17

पन्चनवत्यधिकद्विशततम (295) अध्‍याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पन्चनवत्यधिकद्विशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सत्यवान और सावित्री का विवाह तथा सावित्री का अपनी सेवाओं द्वारा सबको संतुष्ट करना

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर कन्यादान के विषय में नारद जी के ही कथन पर विचार करते हुए राजा अश्वपति ने विवाह के लिये सारी सामग्री एकत्र करवायी। फिर उन्होंने बूढ़े ब्राह्मणों, समस्त ऋत्विजों तथा पुराहितों को बुलाकर किसी शुभ दिन में कन्या के साथ तपोवन को प्रस्थान किया। पवित्र वन में द्युमत्सेन के आश्रम के निकट पहुँचकर राजा अश्वपति ब्राह्मणों के साथ पैदल ही उन राजर्षि के पास गये। वहाँ उन्होंने उन महाभाग नेत्रहीन नरेश को शालवृक्ष के नीचे एक कुश की चटाई पर बैठे देखा। राजा अश्वपति ने राजर्षि द्युमत्सेन की यथायोग्य पूजा की और वाणी को संयम में रखकर उन्होंने उनके समक्ष अपना परिचय दिया। तब धर्मज्ञ राजा द्युमत्सेन ने मद्रराज अश्वपति को अर्घ्य, आसन और गौ निवेदन करके उनसे पूछा- ‘किस उद्देश्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है?’ तब राजा ने उनसे सत्यवान के उद्देश्य से अपना सारा अभिप्राय तथा कैसे-कैसे क्या-क्या करना है, इत्यादि बातों का विवरण सब कुछ स्पष्ट बता दिया।

अश्वपति बोले- धर्मज्ञ राजर्षे! सावित्री नाम से प्रसिद्ध मेरी यह सुन्दरी कन्या है। इसे आप धर्मतः अपनी पुत्रवधू बनाने के लिये स्वीकार करें।

द्युमत्सेन बोले- महाराज! हम राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं एवं वन का आश्रय लेकर संयम-नियम के साथ तपस्वी जीवन बिताते हुए धर्म का अनुष्ठान करते हैं। आपकी कनया ये सब कष्ट सहन करने के योग्य नहीं है। ऐसी दशा में यह आश्रम में रहकर वनवास के इस कष्ट को कैसे सह सकेगी?

अश्वपति ने कहा- राजन्! सुख और दुःख तो उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। इस बात को मैं और मेरी पुत्री दोनों जानते हैं। मेरे जैसे मनुष्य से आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मैं तो सब प्रकार से निश्चय करके ही आपके पास आया हूँ। मैं सौहार्द भाव से आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी आशा भग्न न करें- प्रेमपूर्वक अपने पास आये हुए मुझ प्रार्थी को निराश न लौटावें। आप सर्वथा मेरे अनुरूप और योग्य हैं। मैं भी आपके योग्य हूँ। आप मेरी इस कन्या को अपने श्रेष्ठ पुत्र सत्यवान की पत्नी एवं अपनी पुत्रवधू के रूप में ग्रहण कीजिये।

द्युमत्सेन बोले- महाराज! मैं तो पहले ही आपके साथ सम्बन्ध करना चाहता था; परंतु इस समय अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ, यह सोचकर मैंने ऐसा विचार कर लिया था कि अब यह सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। किंतु मेरा यह अभिप्राय, जो मुझे पहले से ही अभीष्ट था, यदि आज भी सिद्ध होना चाहता है, तो अवश्य हो। आप मेरे मनोवांछित अतिथि हैं। तदनन्तर उस आश्रम में रहने वाले सभी ब्राह्मणों को बुलाकर दोनों राजाओं ने सत्यवान-सावित्री] का विवाह संस्कार विधिवत् सम्पन्न कराया। राजा अश्वपति दहेज सहित कन्यादान देकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपनी राजधानी लौट गये। उस सर्वगुणसम्पन्न भार्या को पाकर सत्यवान को बड़ी प्रसन्नता हुई और सत्यवान को अपने मनोवांछित पति के रूप में पाकर सावित्री को भी बड़ा आनन्द हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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