महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-17

पंचम (5) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र के द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश

वैशम्पायन जी कहते है- तदनन्तर जनमेजय! राजा युधिष्ठिर की अनुमति पाकर प्रतापी राजा धृतराष्ट्र गांधारी के साथ अपने भवन में गये। उस समय उनकी चलने-फिरने की शक्ति बहुत कम हो गयी थी। वे बुद्धिमान भूपाल बूढ़े हाथी की भाँति पैदल चलते समय बड़ी कठिनाई से पैर उठाते थे। उस समय उनके पीछे-पीछे ज्ञानी विदुर, सारथि संजय तथा शरद्वान के पुत्र महाधनुर्धर कृपाचार्य भी गये। राजन! घर में प्रवेश करके उन्होंने पूर्वाह्नकाल की धार्मिक क्रिया पूरी की; फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अन्न-पान आदि से तृप्त करके स्वयं भी भोजन किया। भरतनन्दन! इसी प्रकार धर्म को जानने वाली मनस्विनी गांधारी देवी ने भी कुन्ती सहित पुत्रवधुओं द्वारा विविध उपचारों से पूजित होकर आहार ग्रहण किया।

कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र के भोजन कर लेने पर पांडव तथा विदुर आदि सब लोगों ने भी भोजन किया, फिर सब-के-सब धृतराष्ट्र की सेवा में उपस्थित हुए। महाराज! उस समय कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को एकान्त में अपने निकट बैठा जान धृतराष्ट्र ने उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- "कुरुनन्दन! राजसिंह! इस आठ अंगों वाले राज्य में तुम सदा धर्म को ही आगे रखना और इसके संरक्षण और संचालन में कभी किसी तरह भी प्रमाद न करना। महाराज पांडुनन्दन! कुन्तीकुमार! राज्य की रक्षा धर्म से ही हो सकती है। इस बात को तुम स्वयं भी जानते हो तथापि मुझसे भी सुनो।

युधिष्ठिर! विद्या में बढ़े-चढ़े विद्वान पुरुषों का सदा ही संग किया करो। वे जो कुछ कहें, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और उसका बिना विचारे पालन करो। राजन! प्रातःकाल उठकर उन विद्वानों का यथायोग्य सत्कार करके कोई कार्य उपस्थित होने पर उनसे अपना कर्तव्य पूछो। राजन! तात! भरतनन्दन! अपना हित करने की इच्छा से तुम्हारे द्वारा सम्मानित होने पर वे सर्वथा तुम्हारे हित की बात बतायेंगे। जैसे सारथि घोड़ों को काबू में रखता है, उसी प्रकार तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अधीन रखकर उनकी रक्षा करो। ऐसा करने से वे इन्द्रियाँ सुरक्षित धन की भाँति भविष्य में तुम्हारे लिये निश्चय ही हितकर होंगी। जो जाँचे-बूझे हुए तथा निष्कपट भाव से काम करने वाले हों, जो पिता-पितामहों के समय से काम देखते आ रहे हों तथा जो बाहर-भीतर से शुद्ध, संयमी और जन्म एवं कर्म से भी पवित्र हों, ऐसे मन्त्रियों को ही सब तरह के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों में नियुक्त करना। जिनकी किसी अवसर पर परीक्षा कर ली गयी हो और जो अपने ही राज्य के भीतर निवास करने वाले हों, ऐसे अनेक जासूसों को भेजकर उनके द्वारा शत्रुओं का गुप्त भेद लेते रहना और प्रयत्नपूर्वक ऐसी चेष्टा करना, जिससे शत्रु तुम्हारा भेद न जान सकें। तुम्हारे नगर की रक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रहना चाहिये। उसके चारों ओर की दीवारें तथा मुख्य द्वारा अत्यन्त सुदृढ़ होने चाहिये। बीच का सारा नगर ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से भरा होना चाहिये। सब दिशाओं में छः चहारदीवारियाँ बननी चाहिये। नगर के सभी दरवाज़े विस्तृत एवं विशाल हों। सब ओर उनकी रक्षा के लिये यन्त्र लगे हों तथा उन द्वारों का विभाग सुन्दर ढंग से सम्पन्न हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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