महाभारत आदि पर्व अध्याय 215 श्लोक 1-23

पंचदशाधिकद्विशततम (215) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: पंचदशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के द्वारा वर्गा अप्‍सरा का ग्राहयोनि से उद्धार तथा वर्गा की आत्‍मकथा का आरम्‍भ

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर अर्जुन दक्षिण समुद्र के तट पर तपस्‍वीजनों से सुशोभित परमपुण्‍यमय तीर्थों में गये। वहाँ उन दिनों तपस्‍वी लोग पांच तीर्थों को छोड़ देते थे। ये वे ही तीर्थ थे, जहाँ पूर्वकाल में बहुतेरे तपस्‍वी महात्‍मा भरे रहते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- अगस्‍त्‍यतीर्थ, सौभद्रतीर्थ, परम पावन पौलोतीर्थ, अश्‍वमेघ का फल देने वाला स्‍वच्‍छ कारन्‍धमतीर्थ तथा पापनाशक महान् भारद्वाज तीर्थ! कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन ने इन पांचों तीर्थों का दर्शन किया। पाण्‍डुपुत्र अर्जुन ने देखा, ये सभी तीर्थ बड़े एकान्‍त में हैं, तो भी एकमात्र धर्म में बुद्धि को लगाये रखने वाले मुनि भी उन तीर्थ को दूर से ही छोड़ दे रहे है। तब कुरुनन्‍दन धनंजय ने दोनों हाथ जोड़कर तपस्‍वी मुनियों से पूछा- ‘वेदवक्‍ता ऋषिगण इन तीर्थों का परित्‍याग किसलिये कर रहे हैं? तपस्‍वी बोले- कुरुनन्‍दन! उन तीर्थों में पांच घड़ियाल रहते हैं, जो नहाने वाले तपोधन ऋषियों को जल के भीतर खींच ले जाते हैं; इसीलिये ये तीर्थ मुनियों द्वारा त्‍याग दिये गये हैं।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- उनकी बातें सुनकर कुरुश्रेष्‍ठ महाबाहु अर्जुन उन तपोधनों के मना करने पर भी उन तीर्थों का दर्शन करने के लिये गये। तदनन्‍तर परंतप शूरवीर अर्जुन महर्षि सुभद्र के उत्‍तम सौभद्रती तीर्थ में सहसा उतरकर स्‍नान करने लगे। इतने में ही जल के भीतर विचरने वाले एक महान् ग्राह ने नरश्रेष्ठ कुन्‍तीकुमार धनंजय को एक पैर पकड़ लिया। परंतु बलवानों में श्रेष्‍ठ महाबाहु कुन्‍तीकुमार बहुत उछल कूद मचाते हुए उस जलचर जीव को लिये दिये पानी से बाहर निकल आये। यशस्‍वी अर्जुन द्वारा पानी के ऊपर खिंच आने पर वह ग्राह समस्‍त आभूषणों से विभूषित एक परम सुन्‍दरी नारी के रुप में परिणत हो गया। राजन्! वह दिव्‍यरुपिणी मनोरमा रमणी अपनी अद्भुत कान्ति से प्रकाशित हो रही थी। वह महान् आश्‍चर्य की बात देखकर कुन्‍तीनन्‍दन धनंजय बड़े प्रसन्‍न हुए और उस स्‍त्री से इस प्रकार बोले- ‘कल्‍याणी! तुम कौन हो और कैसे जलचर योनि को प्राप्‍त हुई थी? तुमने पूर्वकाल में ऐसा महान् पाप किसलिये किया? जिससे तुम्‍हारी दुर्गती हुई?

वर्गा बोली- महाबाहो! मैं नन्‍दन वन में विहार करने वाली एक अप्‍सरा हूँ। महाबली! मेरा नाम वर्गा है। मैं कुबेर की नित्‍यप्रेयसी रही हूँ। मेरी चार दूसरी सखियां भी हैं। वे सब इच्‍छानुसार गमन करने वाली और सुन्‍दरी हैं। उन सबके साथ एक दिन मैं लोकपाल कुबेर के घर पर जा रही थी। मार्ग में हम सबने उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्राह्मण को देखा। वे बड़े रुपवान् थे और अकेले एकान्‍त में रहकर वेदों का स्‍वाध्‍याय करते थे। राजन्! उन्‍हीं की तपस्‍या से वह सारा वन प्रान्‍त तेजोमय हो रहा था। वे सूर्य की भाँति उस सम्‍पूर्ण प्रदेश को प्रकाशित कर रहे थे। उनकी वैसी तपस्‍या और वह अद्भुत एवं उत्‍तम रुप देखकर हम सभी अप्‍सराएं उनके तप में डालने की इच्‍छा से उस स्‍थान में उतर पड़ी। भारत मैं, सौरभेयी, समीची, बुद्‌बुदा और लता पाँचों एक ही साथ उन ब्राह्मण के समीप गयीं और उन्हें लुभाती हुई हँसने तथा गाने लगीं। परंतु वीरवर उन्होंने किसी प्रकार भी अपने मन को हमारी ओर नहीं खिंचने दिया। वे महातेजस्वी ब्राह्मण निर्मल तपस्या में सलग्न थे। वे उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। क्षत्रियोशिरोमणी हमारी उद्द्ण्डता कुपित होकर उन ब्राह्मण ने हमें शाप दे दिया- 'तुम लोग सौ वर्षों तक जल में ग्राह बनकर रहोगी।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत अर्जुनवनवास पर्व में तीर्थग्राहविमोचनविषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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