महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-16

एकोनविंश (19) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन

सिद्ध ब्राह्मण ने कहा- काश्यप! जो मनुष्य (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में क्रमश:) पूर्व-पूर्व का अभिमान त्यागकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता और मौन भाव से रहकर सब के एकमात्र अधिष्ठान पर ब्रह्म परमात्मा में लीन रहता है, वही संसार बन्धन से मुक्त होता है। जो सबका मित्र, सब कुछ सहने वाला, मनोनिग्रह में तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोध से रहित तथा आत्मवान है, वह मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियों के प्रति आपने जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पाने की इच्छा नहीं है तथा जो अभिमान से दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो जीवन मरण, सुख दु:ख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों को समभाव से देखता है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी के द्रव्य का लोभ नहीं रखता, किसी की अवहेलना नहीं करता, जिसके मन पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्त की आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो किसी को अपना मित्र, बन्धु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और काम का त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है, वह मुक्त हो जाता है।

जिसकी न धर्म में आसक्ति है न अधर्म में, जो पूर्व संचित कर्मों को त्याग चुका है, वासनाओं का क्षय हो जाने से जिसका चित्त शान्त हो गया है तथा जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को अश्वत्थ के समान अनित्य-कल तक न टिक सकने वाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्य में लगी है और जो निरन्तर अपने दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बन्धन का नाश कर देता है। जो आत्मा को गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूप से रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है। जिसकी दृष्टि में आत्मा पांच भौतिक गणों से हीन, निराकार, कारण रहित तथा निर्गुण होते हुए भी (माया के सम्बन्ध से) गुणों का भोक्ता है, वह मुक्त हो जाता है। जो बुद्धि से विचार करके शारीरिक और मानसिक सब संकल्पों का त्याग कर देता है, वह बिना ईंधन की आग के समान धीरे-धीरे शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

जो सब प्रकार के संस्कारों से रहित, द्वन्द्व और परिग्रह से रहित हो गया है तथा जो तपस्या के द्वारा इन्द्रिय-समूह को अपने वश में करके (अनासक्त) भाव से विचरता है, वह मुक्त ही है। जो सब प्रकार के संस्कारों से मुक्त होता है, वह मनुष्य शान्त, अचल, नित्य, अविनशी एवं सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अब मैं उस परम उत्तम योग शास्त्र का वर्णन करूँगा, जिसके अनुसार योग-साधन करने वाले योगी पुरुष अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। मैं उसका यथावत उपदेश करता हूँ। मनोनिग्रह के जिन उपायों द्वारा चित्त को इस शरीर के भीतर ही वशीभूत एवं अन्तमुर्ख करके योगी आने नित्य आत्मा का दर्शन करता है, उन्हें मुझसे श्रवण करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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