महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 17-33

एकोनविंश (19) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर मन में और मन को आत्मा में स्थापित करे। इस प्रकार पहले तीव्र तपस्या करके फिर मोक्षोपयोगी उपाय का अवलम्बन करना चाहिये। मनीषी ब्राह्मण को चाहिये कि वह सदा तपस्या में प्रवृत्त एवं यत्नशील होकर योग शास्त्रों का उपाय का अनुष्ठान करे। इससे वह मन के द्वारा अन्त:करण में आत्मा का साक्षात्कार करता है। एकान्त में रहने वाला साधक पुरुष यदि अपने मन को आत्मा में लगाये रखने में सफल हो जाता है तो वह अवश्य ही अपने में आत्मा का दर्शन करता है। जो साधक सदा संयमपरायण, योगयुक्त, मन को वश में करने वाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित होकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है। जैसे मनुष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखक जब पुन: उसे जाग्रत अवस्था में देखता है, तब तुरंत पहचान लेता है कि ‘यह वही है।’ उसी प्रकार साधन परायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप में देखता है, उसी रूप में उसके बाद भी देखता रहता है। जैसे कोई मनुष्य मूँज से सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है। यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक। योग वेत्ताओं ने देह और आत्मा के पार्थक्य को समझ ने के लिये यह बहुत उत्तम दृष्टान्त दिया है। देहधारी जीव जब योग के द्वारा आत्मा का यथार्थ रूप से दर्शन कर लेता है, उस समय उसके ऊपर त्रिभुवन के अधीश्वर का भी आधिपत्य नहीं रहता है।

वह योगी अननी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है, बुढ़ापा और मृत्यु को भी भगा देता है, वह न कभी शोक करता है न हर्ष। अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाला योगी पुरुष देवताओं का भी देवता हो सकता है। वह इस अनित्य शरीर का त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त होता है। सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश होने पर भी उसे भय नहीं होता। सबके क्लेश उठाने पर भी उसको किसी से क्लेश नहीं पहुँचता। शान्तचित्त एवं नि:स्पृह योगी आसक्ति और स्नेह से प्राप्त होने वाले भयंकर दु:ख शोक तथा भय से विचलित नहीं होता। उसे शस्त्र नहीं बींध सकते, मृत्यु उसके पास नहीं पहुँच पाती, संसार में उससे बढ़कर सुखी कहीं कोई नहीं दिखायी देता। वह मन को आत्मा में लीन करके उसी में स्थित हो जाता है तथा बुढ़ापा के दु:खों से छुटकारा पाकर सुख से सोता-अक्षय आनन्द का अनुभव करता है। वह इस मानव शरीर का त्याग करके इच्छानुसार दूसरे बहुत से शरीर धारण करता है। योगजनित ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले योगी को योग से किसी तरह विरक्त नहीं होना चाहिये। अच्छी तरह योग का अभ्यास करके जब योगी अपने में ही आत्मा का साक्षात्कार करने लगात है, उस समय वह साक्षात इन्द्र के पद को पाने की इच्छा नहीें करता है। एकान्त में ध्यान करने वाले पुरुष को जिस प्रकार योग की प्राप्ति होती है, वह सुनो- जो उपदेश पहले श्रुति में देखा गया है, उसका चिन्तन करके जिस भाग में जीव का निवास माना गया है, उसी में मन को भी स्थापित करे। उसके बाहर कदापि न जाने दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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