सप्तर्विंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- भूपाल! जो मनुष्य बन्धु-बान्धवों का अथवा राज्य का नाश हो जाने पर घोर संकट मे पड़ गया हो, उसके कल्याण का क्या उपाय है? भरतश्रेष्ठ! इस संसार में आप ही हमारे लिये सबसे श्रेष्ठ वक्ता हैं; इसलिये यह बात आपसे ही पूछता हूँ। आप यह सब मुझे बताने की कृपा करें। भीष्म जी ने कहा- राजा युधिष्ठिर! जिसके स्त्री-पुत्र मर गये हों, सुख छिन गया हो अथवा धन नष्ट हो गया हो और इन कारणों से जो कठिन विपत्ति में फँस गया हो, उसका तो धैर्य धारण करने में ही कल्याण है। जो धैर्य से युक्त है, उस सत्पुरुष का शरीर चिन्ता के कारण नष्ट नहीं होता। शोकहीनता सुख और उत्तम आरोग्य का उत्पादन करती है, शरीर के नीरोग होने से मनुष्य फिर धन-सम्पत्ति का उपार्जन कर लेता है। तात! जो बुद्धिमान मनुष्य सदा सात्त्विक वृत्ति का सहारा लिये रहता हैं। उसी को ऐश्वर्य और धैर्य की प्राप्ति होती हैं तथा वही सम्पूर्ण कर्मों में उद्योगशील होता है। युधिष्ठिर! इस विषय में पुन: बलि और इंद्र के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में जब दैत्यों और दानवों का संहार करने वाला देवासुर संग्राम समाप्त हो गया, वामनरूपधारी भगवान विष्णु ने अपने पैरों से तीनों लोकों को नाप लिया और सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले इन्द्र जब देवताओं के राजा हो गये, तब देवताओं की सब ओर आराधना होने लगी। चारों वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म मे स्थित रहने लगे। तीनों लोकों का अभ्युदय होने लगा और सबको सुखी देखकर स्वयम्भु ब्रह्मा जी अत्यन्त प्रसन्न रहने लगे। उन्हीं दिनों की बात है, देवराज इन्द्र अपने ऐरावत नामक गजराज पर, जो चार सुन्दर दाँतों से सुशोभित और दिव्य शोभा से सम्पन्न था, आरूढ़ हो तीनों लोकों में भ्रमण करने के लिये निकले। उस समय त्रिलोकीनाथ इन्द्र, रुद्र, वसु, आदित्य, अश्विनीकुमार, ऋषिगण, गन्धर्व, नाग, सिद्ध तथा विद्याधरों आदि से घिरे हुए थे। घूमते-घूमते वे किसी समय समुद्र तट पर जा पहुँचे। वहाँ किसी पर्वत की गुफा में उन्हें विरोचनकुमार बलि दिखायी दिये। उन्हें देखते ही इन्द्र हाथ में वज्र लिये उनके पास जा पहुँचे। देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र को ऐरावत की पीठ पर बैठे देख दैत्यराज बलि के मन में तनिक भी शोक या व्यथा नहीं हुई। उन्हें निर्भय और निर्विकार होकर खड़ा देख श्रेष्ठ गजराज पर चढे़ हुए शतक्रतु इन्द्र ने उनसे इस प्रकार कहा। दैत्य! तुम्हें अपने शत्रु की समृद्धि देखकर व्यथा क्यों नहीं होती? क्या शौर्य से अथवा बडे़-बूढो़ं की सेवा करने से या तपस्या से अन्त:करण शुद्ध हो जाने के कारण तुम्हें शोक नहीं होता है? साधारण पुरुष के लिये तो यह धैर्य सर्वथा परम दुष्कर है। ‘विरोचनकुमार! तुम शत्रुओं के वश में पड़े और उत्तम स्थान (राज्य) से भ्रष्ट हुए इस प्रकार शोचनीय दशा में पड़कर भी तुम किस बल का सहारा लेकर शोक नहीं करते हो? ‘तुमने अपने जाति भाइयों में सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया था और परम उत्तम महान भोगों पर अधिकार जमा रखा था; किंतु इस समय तुम्हारे रत्न और राज्य का अपहरण हो गया है, तो भी बताओं, तुम्हें शोक क्यों नहीं होता? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज