महाभारत वन पर्व अध्याय 258 श्लोक 1-17

अष्‍टपच्‍चाशदधिकद्विशततम (258) अध्‍याय: वन पर्व (मृगखप्रोद्भव पर्व )

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महाभारत: वन पर्व: अष्‍टपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों का काम्‍यकवन में गमन

जनमेजय ने पूछा- दुर्योधन को गन्धर्वों के बन्‍धन से छुड़ाकर महाबली पाण्‍डवों ने उस वन में कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताने की कृपा करें।

वैशम्‍पायन जी ने कहा- तदनन्‍तर एक रात में जब कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर सो रहे थे, स्‍वप्‍न में द्वैतवन के सिंह-बाघ आदि हिंसक पशुओं ने उन्‍हें दर्शन दिया। उन सबके कण्‍ठ आंसुओं से रून्‍धे हुए थे। वे थरथर कांपते हुए हाथ जोड़कर खडे थे। महाराज युधिष्ठिरने उनसे पूछा- ‘आप लोग कौन हैं? क्‍या कहना चाहते हैं? आपकी क्‍या इच्‍छा है? बताइये’। यशस्‍वी पाण्‍डव कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मरने से बचे हुए हिंसक पशुओं ने उनसे कहा- ‘भारत! हम द्वैतवन के पशु हैं। आप लोगों के मारने से हमारी इतनी ही संख्‍या शेष रह गयी है। महाराज! हमारा सर्वथा संहार न हो जाये, इसके लिये आप अपना निवास स्‍थान बदल दीजिये। आपके सभी भाई शूरवीर एवं अस्‍त्र विद्या में प्रवीण हैं। इन्‍होंने हम वनवासी हिंसक पशुओं के कुलों को थोड़ी ही संख्‍या में जीवित छोड़ा है। महामते! हम सिंह, बाघ आदि पशु थोड़ी-सी संख्‍या में अपने वंश के बीजमात्र शेष रह गये हैं। महाराज युधिष्ठिर! आपकी कृपा से हमारे वंश की वृद्धि हो, यही हम निवेदन करते हैं’। वे सिंह-बाघ आदि पशु त्रस्‍त होकर थर–थर कांप रहे थे और बीजमात्र ही शेष रह गये थे। उनकी यह दयनीय दशा देखकर धर्मराज युधिष्ठिर अत्‍यन्‍त दु:ख से व्‍याकुल हो गये।

समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- ‘बहुत अच्‍छा, तुम लोग जैसा कहते हो, वैसा ही करूँगा’। इस प्रकार जब रात बीतने पर सबेरे उनकी नींद खुली, तब वे नृपति शिरोमणि हिंसक पशुओं के प्रति दयाभाव से द्रवित हो अपने सब भाइयों से बोले- ‘बन्‍धुओं! रात को सपने में मरने से बचे हुए इस वन के पशुओं ने मुझसे कहा है- ‘राजन्! आपका भला हो। हम अपनी वंश परम्‍परा के एक-एक तन्‍तु मात्र शेष रह गये हैं। अब हम लोगों पर दया कीजिये’। मेरी समझ में वे पशु ठीक कहते हैं। हम लोगों को वनवासी हिंसक जीवों पर भी दया करनी चाहिये। अब तक हम लोगों का इस द्वैतवन में रहते हुए एक वर्ष आठ महीने बीत चुके हैं। अत: अब हम पुन: असंख्‍य मृगों से युक्‍त, रमणीय तथा उत्‍तम काम्यकवन में तृणबिन्‍दु नामक सरोवर के पास चलें। काम्‍यकवन मरुभूमि के शीर्षक स्‍थान में पड़ता है, वहीं विहार करते हुए हम वनवास के शेष दिन सुखपूर्वक बितायेंगे’।

राजन्! तदनन्‍तर उन धर्मज्ञ पाण्‍डवों ने वहाँ रहने वाले ब्राह्मणों के साथ शीघ्र ही उस वन से प्रस्‍थान कर दिया। इन्‍द्रसेन आदि सेवक भी उस समय उन्‍हीं के साथ चल दिये। वे सब लोग उत्‍तम अन्‍न और पवित्र जल की सुविधा से सम्‍पन्न तथा सदा चालू रहने वाले मार्गों से यात्रा करते हुए पुण्‍य एवं बहुतेरे तपस्‍वीजनों से युक्‍त काम्‍यकवन के आश्रम में पहुँचकर वहां की शोभा देखने लगे। जैसे पुण्‍यात्‍मा पुरुष स्‍वर्ग में जाते हैं, उसी प्रकार उन भरतश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों के साथ काम्‍यकवन में प्रवेश किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मृगस्‍वप्नोद्भ्रव पर्व में काम्‍यकवन प्रवेश विषयक दो सौ अट्ठावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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