महाभारत वन पर्व अध्याय 222 श्लोक 1-15

द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम (222) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


सह नामक अग्नि का जल में प्रवेश और अथर्वा अंगिरा द्वारा पुन: उनका प्राकट्य

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन्! जल में निवास के कारण प्रसिद्ध हुए ‘सह’ नामक अग्नि के एक परम प्रिय पत्‍नी थी, जिसका नाम था मुदिता। उसके गर्भ से भूलोक और भुवलोक के स्‍वामी सह ने ‘अद्भुत’ नामक उत्‍कृष्‍ट अग्नि को उत्‍पन्न किया। ब्राह्मण लोगों में वंश परम्‍परा के क्रम से सभी यह मानते और कहते हैं कि ‘अद्भुत’ नामक अग्नि सम्‍पूर्ण भूतों के अधिपति हैं। वे ही सबके आत्‍मा और भुवन-भर्ता हैं। वे ही इस जगत् के सम्‍पूर्ण महाभूतों के पति हैं। उनमें सम्‍पूर्ण ऐश्‍वर्य सुशोभित हैं। वे महातेजस्‍वी अग्नि देव सदा सर्वत्र विचरण करते हैं। जो अग्नि गृहपति नाम से सदा यज्ञ में पूजित होते हैं तथा हवन किये गये हविष्‍य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं, वे अद्भुत अग्नि ही इस जगत् को पवित्र करने वाले हैं।

जो ‘आप’ नाम वाले सह के पुत्र हैं, जो महाभाग, सत्‍वभोक्ता, भुलोक के पालक और भुवलोक के स्‍वामी हैं, वे अद्भुत नामक महान् अग्नि बुद्धितत्‍व के अधिपति बताये जाते हैं। उन्‍हीं ‘अद्भुत’ या ग्रहपति के एक अग्निस्‍वरूप पुत्र उत्‍पन्न हुआ, जिसका नाम ‘भरत’ है। ये मरे हुए प्राणियों के शव का दाह करते हैं। भरत का अग्निष्‍टोम यज्ञ में नित्‍य निवास है, इसलिये उन्‍हें ‘नियत’ भी कहते हैं। नियत का संकल्‍प उत्तम है। प्रथम अग्नि ‘सह’ बड़े प्रभावशाली हैं। एक समय देवता लोग उनको ढूंढं रहे थे। उनके साथ अपने पौत्र नियत को भी आता देख (उससे छू जाने के) भय से वे समुद्र के भीतर घुस गये। तब देवता लोग सब दिशाओं में उनकी खोज करते हुए वहाँ भी पहुँचने लगे। एक दिन अथर्वा (अंगिरा) को देखकर अग्नि ने उनसे कहा- ‘वीर! तुम देवताओं के पास उनका हविष्‍य पहुँचाओ। मैं अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गया हूँ। अब केवल तुम्‍हीं अग्निपद पर प्रतिष्ठित हो जाओ और मेरा यह प्रिय कार्य सम्‍पन्न करो।'

इस प्रकार अथर्वा को भेजकर अग्नि देव दूसरे स्‍थान में चले गये। किंतु मत्‍स्‍यों ने अथर्वा से उनकी स्थिति कहाँ है, यह बता दिया। इससे कुपित होकर अग्नि ने उन्‍हें शाप देते हुए कहा- ‘तुम लोग नाना प्रकार के जीवों के भक्ष्‍य बनोगे’। तदनन्‍तर अग्नि ने अथर्वा से फिर वही बात कही। उस समय देवताओं के कहने से अथर्वा मुनि ने सह नामक अग्नि देव से अत्‍यन्‍त अनुनय-विनय की; परंतु उन्‍होंने न तो हविष्‍य ढोने का भार लेने की इच्‍छा की और न वे अपने उस जीर्ण शरीर का ही भार सह सके। अन्‍ततोगत्‍वा उन्‍होंने शरीर त्‍याग दिया। उस समय अपने शरीर को त्‍यागकर वे धरती में समा गये। भूमि का स्‍पर्श करके उन्‍होंने पृथक-पृथक बहुत-से धातुओं की सृष्टि की। ‘सह’ नामक अग्नि ने अपने पीब तथा रक्त से गन्‍धक एवं तैजस धातुओं को उत्पन्न किया। उनकी हड्डियों से देवदारु के वृक्ष प्रकट हुए। कफ से स्‍फटिक तथा पित्त से मरकत मणि का प्रादुर्भाव हुआ और उनका यकृत (जिगर) ही काले रंग का लोहा बनकर प्रकट हुआ। काष्‍ठ, पाषाण और लोहा-इन तीनों से ही प्रजाजनों की शोभा होती है। उनके नख मेघसमूह का रूप धारण करते हैं। नाड़ियां मूंगा बनकर प्रकट हुई हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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