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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचाशदधिकततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
- भगवान श्रीकृष्ण कहते है- राजन! भीष्म, द्रोण, विदुर, गान्धारी तथा धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर भी मन्दबुद्धि दुर्योधन को तनिक भी चेत नहीं हुआ। (1)
- वह मूर्ख क्रोध से लाल आंखें किये उन सबकी अवहेलना करके सभा से उठकर चला गया। उसी के पीछे अन्य राजा भी अपने जीवन का मोह छोड़कर सभा से उठकर चल दिये। (2)
- ज्ञात हुआ है, दुर्योधन ने उन विवेकशून्य राजाओं को यह बार-बार आज्ञा दे दी कि तुम सब लोग कुरुक्षेत्र को चलो। आज पुष्य नक्षत्र है। (3)
- तदनन्तर वे सभी भूपाल काल से प्रेरित हो भीष्म को सेनापति बनाकर बड़े हर्ष के साथ सैनिकों सहित वहाँ से चल दिये हैं। (4)
- कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आ गयी हैं। उन सबमें प्रधान हैं भीष्मजी, जो अपने तालध्वज के साथ सुशोभित हो रहे हैं। (5)
- प्रजानाथ! अब तुम्हें भी जो उचित जान पड़े, वह करो! भारत! कौरव सभा में भीष्म, द्रोण, विदुर, गान्धारी तथा धृतराष्ट्र ने मेरे सामने जो बातें कही थीं, वे सब आपको सुना दीं। राजन! यही वहाँ का वृतान्त है। (6-7)
- राजन मैंने सब भाइयों में उत्तम बन्धुजनोचित प्रेम बने रहने की इच्छा से पहले सामनीति का प्रयोग किया था, जिससे इस वंश में फूट न हो और प्रजाजनों की निरन्तर उन्नति होती रहे। (8)
- जब वे सामनीति न ग्रहण कर सके, तब मैंने भेदनीति का प्रयोग किया उनमें फूट डालने की चेष्टा की। पाण्डवों के देव-मनुष्योचित कर्मों का बारंबार वर्णन किया। (9)
- जब मैंने देखा दुर्योधन मेरे सान्त्वनापूर्ण वचनों का पालन नहीं कर रहा है, तब मैंने सब राजाओं को बुलाकर उनमें फूट डालने का प्रयत्न किया। (10)
- भारत! वहाँ मैंने बहुत-से अद्भुत, भयंकर, निष्ठुर एवं अमानुषिक कर्मों का प्रदर्शन किया। (11)
- समस्त राजाओं को डाँट बताकर दुर्योधन का तिनके के समान समझकर तथा राधानन्दन कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि को बार-बार डराकर जूए से धृतराष्ट्र की निन्दा करके वाणी तथा गुप्त मन्त्रणा द्वारा सब राजाओं के मन में अनेक बार भेद उत्पन्न करने के पश्चात फिर साम सहित दान की बात उठायी, जिससे कुरुवंश की एकता बनी रहे और अभीष्ट कार्य की सिद्धि हो जाये। (12-14)
- मैंने कहा- नृपश्रेष्ठ! यद्यपि पाण्डव शौर्य से सम्पन्न हैं, तथापि वे सब-के-सब अभिमान छोड़कर भीष्म, धृतराष्ट्र और विदुर के नीचे रह सकते हैं। वे अपना राज्य भी तुम्हीं को दे दें और सदा तुम्हारे अधीन होकर रहें। राजा धृतराष्ट्र, भीष्म और विदुरजी ने तुम्हारे हित के लिये जैसी बात कही है वेसा ही करो। सारा राज्य तुम्हारे ही पास रहे। तुम पाण्डवों को पाँच ही गाँव दे दो; क्योंकि तुम्हारे पिता के लिये पाण्डवों का भरण-पोषण करना भी परम आवश्यक है। (15-17)
- मेरे इस प्रकार कहने पर भी उस दुष्टात्मा ने राज्य का कोई भाग तुम्हारे लिये नहीं छोड़ा अर्थात देना नहीं स्वीकार किया। अब तो मैं उन पापियों पर चौथे उपाय दण्ड के प्रयोग की ही आवश्यकता देखता हूँ, अन्यथा उन्हें मार्ग पर लाना असम्भव है। (18)
- सब राजा अपने विनाश के लिये कुरुक्षेत्र को प्रस्थान कर चुके हैं। राजन! कौरव-सभा में जो कुछ हुआ था, वह सारा वृतान्त मैंने तुमसे कह सुनाया। (19)
- पाण्डुनन्दन! वे कौरव बिना युद्ध किये तुम्हें राज्य नहीं देंगे। उन सबके विनाश का कारण जुट गया है और उनका मृत्युकाल भी आ पहुँचा है। (20)
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