महाभारत विराट पर्व अध्याय 72 श्लोक 1-9

द्विसप्ततितम (72) अध्याय: विराट पर्व (वैवाहिक पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का अपनी पुत्र वधू के रूप में उत्तरा को ग्रहण करना एवं अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह

वैशम्पायन जी कहते हैं -जनमेजय! विराट बोले- पाण्डव श्रेष्ठ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूँ, फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते? अर्जुन ने कहा- राजन! मैं बहुत समय तक आपके रानिवास में रहा हूँ और आपकी कन्या को एकान्त में तथा सबके सामने भी ( पुत्री भाव से ही ) देखता आया हूँ। उसने भी मुझ पर पिता की भाँति ही विश्वास किया है। मैं नाचता तो था ही, गान विद्या में भी कुशल हूँ, अतः उसके मेरे पति बहुत अधिक प्रेम रहा है, किंतु आपकी पुत्री मुझे सदा आचार्य ( गुरु ) की भाँति मानती आयी है। राजन! जब वह वयस्क हो चुकी थी तब मैं उसके साथ एक वर्ष तक रह चुका हूँ। प्रभो ( ऐसी अवस्था में यदि मैं उसके साथ विवाह करूँगा, तो ) आपको या और किसी मनुष्य को हमारे चरित्र के विषय में ( अवश्य ही ) संदेह होगा और वह युक्ति संगत ही होगा।

महाराज! वह संदेह न हो, इसके लिये मैं आपकी पुत्री को पुत्र वधू के रूप में ही ग्रहण करूँगा। ऐसा होने पर ही मैं शुद्ध चरित्र, जितेन्द्रिय तथा मन को दमन करने वाला समझा जाऊँगा और इसी से मेरे द्वारा आपकी कन्या के चरित्र की शुद्धि स्पष्ट हो जायगी। पुत्र वधू और पुत्री में तथा पुत्र अथवा आत्मा में भेद नहीं है, अतः उसे पुत्र वधू के रूप में ग्रहण करने पर मुझे कलंक की शंका नहीं दिखायी देती और इससे हम दोनों की पवित्रता भी स्पष्ट हो जायगी। परंतप! मैं अभिशाप और मिथ्यावाद से डरता हूँ,[1] इसलिये राजन! मैं आपकी पुत्री उत्तरा को पुत्र वधू के रूप में ही ग्रहण करता हूँ। मेरा पुत्र देव कुमार के समान है। वह साक्षात भगवान वासुदेव का भान्जा है। चक्रधारी श्रीकृष्ण को वह बुहत प्रिय है। साथ ही वह सब प्रकार की अस्त्र विद्या में कुशल है। महाराज! मेरे उस महाबाहु पुत्र का नाम अभिमन्यु हैं। वह आपका सुयोग्य दामाद और आपकी पुत्री कसा उपयुक्त पति होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदि मैं आपकी पुत्री को पत्नी रूप में ग्रहण करूँ, तो लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि हम दोनों में पहले से ही अनुचित सम्बन्ध था

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