महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 331 श्लोक 1-20

एकत्रिंशदधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


नारदजी का शुकदेव को कर्मफल-प्राप्ति में परतन्त्रता विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्यलोक में जाने का निश्चय

नारदजी कहते हैं- शुकदेव! जब मनुष्य सुख को दुःख और दुःख को सुख समझने लगता है, उस समय बुद्धि, उत्तम नीति और पुरुषार्थ भी उाकी रक्षा नहीं कर पाता। अतः मनुष्य को स्वभावतः ज्ञानप्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये; क्योंकि यत्न करने वाला पुरुष कभी दुःख में नहीे पडत्रता। आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है; अतः जरा, मृत्यु और रोगों के कष्ट से उसका उद्धार करे। शारीरिक और मानसिक रोग सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले वीर पुरुषों के छोड़े हुए तीक्ष्ण बाणों के समान शरीर को पीड़ा देते हैं। तृष्णा से व्यथित, दुखी एवं विवश होकर जीने की इच्छा रखने वाले मनुष्य का शरीर विनाश की ओर ही खिंचता चला जाता है। जैसे नदियों का प्रवाह आगे की ओर ही बढ़ता चला जाता है, पीछे की ओर नहीं लौटता, उसी प्रकार रात और दिन भी मनुष्यों की आयु का अपहरण करते हुए बारंबार आते और बीतते चले जाते हैं। शुक्ल और कृष्ण- दोनों पक्षों का निरन्तर होने वाला यह परिवर्तन मनुष्यों को जराजीर्ण कर रहा है। यह कुछ क्षण के लिये भी विश्राम नहीं लेता है। सूर्य पतिदिन अस्त होते और फिर उदय होते हैं। वे स्वयं अजर होत हुए भी प्रतिदिन प्राणियों के सुख और दुःख को जीर्ण करते रहते हैं। ये रात्रियाँ मनुष्य के लिये कितनी ही अपूर्व तथा असम्भावित प्रिय- अप्रिय घटनाएँ लिये आती और चली जाती हैं। यदि जीव के किये हुए कर्मों का फल पराधीन न होता तो जो जिस वस्तु की इच्छा करता, वह अपनी उसी कामना ाके रुचि के अनुसार प्रापत कर लेता। बढ़े-बड़े संयमी, बुद्धिमान और चतुर मनुष्य भी समसत कर्मों से श्रान्त होकर असफल होते देखे जाते हैं। किंतु दूसरे मूर्ख, गुणहीन और अधम मनुष्य भी किसी का आशीर्वाद न मिलने पर भी सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न दिखायी देते हैं। कोई-कोई मनुष्य तो सदा प्राणियों की हिंसा में ही लगा रहता है और सब लोगों को धोखा दिया करता है, तो भी वह सुख ही भोगते-भोगते बूढ़ा होता है। कितने ही ऐसे हैं, जो कोई काम न करके चुपचाप बैठे रहते हैं, फिर भी लक्ष्मी उनके पास अपने-आप पहुँच जाती है और कुछ लोग काम करके भी अपनी प्राप्य वसतु को उपलब्ध नहीं कर पाते। इसमें स्वभावतः पुरुष का ही अपराध (प्रारब्ध-दोष) समझो। वीर्य अन्यत्र उत्पन्न होता है और संतानोत्पादन के लिये अन्यत्र जाता है। कभी तो वह योनि में पहुँचकर गर्भ धारण कराने में समर्थ होता है और कभी नहीं होता तथा कभी-कभी आम के बौर के समान वह व्यर्थ ही झर जाता है। कुछ लोग पुत्र की इच्छा रखते हैं और उस पुत्र के भी संतान चाहते हैं तथा सिद्धि के लिये सब प्रकार के प्रयत्न करते हैं, तो भी उनके एक अंडा ीाी उत्पन्न नहीं होता। बहुत से मनुष्य बच्चा पैदा होने से उसी तरह डरते हैं, जैसे क्रोा में भरे हुए विषधर सर्प से लोग भयभीत रहते हैं, तथापि उनके यहाँ दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न होता है और क्या मजाल है कि वह कभी किसी तरह रोग आदि से मृतकतुल्य हो सके। पुत्र की अभिलाषा रखने वाले दीन स्त्री-पुरुषों द्वारा देवताओं की पूजा और तपस्या करके दस मास तक गर्भ धारण किया जाता है तथापि उनके कुलांगर पुत्र उत्पन्न होते हैं।। तािा बहुत से ऐसे हैं, जो आमोद-प्रमोद में ही जन्म धारण करके पिता के संचित किये हुए अपार धन धान्य एवं विपुल भोगों के अधिकारी होते हैं। पति-पत्नि की पारस्परिक इच्छा के अनुसार मैथुन के लिये जब उनका समागम होता है, उस समय किसी उपद्रव के समान गर्भ योनि में प्रवेश करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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