महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 331 श्लोक 21-37

एकत्रिंशदधिकत्रिशततम (331) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद


जिसकर स्थूल शरीर क्षीण हो गया है तािा जो कफ और मांसमय शरीर से घिरा हुआ है, उस देहधारी प्राणी को मृत्यु के बाद शीघ्र ही दूसरा शरीर उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे एक नौका के भग्न होने पर उस पर बैठे हुए लोगों को उतारने के लिये दूसरी नाव प्रस्तुत रहती है, उसी प्रकार एक शरीर के बाद दूसरे शरीर से मृत्यु को प्राप्त होते हुए जीव को लक्ष्य करके मृत्यु के बाद उसके कर्मफल-भोग के लिये दूसरा नाशवान् यारीर उपस्थित कर दिया जाता है। शुकदेव! पुरुष स्त्री के साथ समागम करके उसके उदर में जिस अचेतन शुक्रबिन्दु को स्थापित करता है, वही गर्भरूप में परिणत होता है। फिर वह गर्भ किस यत्न से यहाँ जीवित रहता है, क्या तुम कभी इस पर विचार करते हो ? जहाँ खाये हुए अनन और जल पच जाते हैं तथा सभी तरह के भक्ष्य पदार्थ जीर्ण हो जाते हैं, उसी पेट में पड़ा हुआ गर्भ अनन के समान क्यों नहीं पच जाता है। गर्भ मे मल और मूत्र के धारण करने या त्याग में कोई स्वभावनियत गति है; किन्तु कोई स्वाधीन कर्ता नहीं है। कुछ गर्भ माता के पेट में गिर जाते हैं, कुछ जन्म लेते हैं और कितनों की ही जन्म लेने के बाद मृत्यु हो जाती है। इस योनि-सम्बन्ध से कोई सकुशल जीता हुआ निकल जाता है।। अनादिकाल से साथ उत्पन्न होने वाले शरीर के साथ जीवात्मा अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस शरीर की गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, यौवन, वृद्धत्व, जरा, प्राणरोध और नाश- ये दस दशाएँ होती हैं। इनमें से सातवीं और नवीं दशा को भी शरीरगत पाँचों भूत ही प्राप्त होते हैं, आत्मा नहीं। आयु समाप्त होने पर यारीर की नवीं दशा में पहुँचने पर ये पाँच भून नहीं रहते। अर्थात् दसवीं दशा को प्रापत हो जाते हैं। जैसे व्याध छोटे मृगों को कष्ट पहुँचाते हैं, उसी प्रकार जब नाना प्रकार के रोग मनुष्यों को मथ डालते हैं, तब उनमें उठने-बैठने की भी शक्ति नहीं रह जाती, इसमें संशय नहीं है। रोगों से पीड़ित हुए मनुष्य वैद्यों को बहुत-सा धन देते हैं और वैद्यलोग रोग दूर करने की बहुत चंष्टा करते हैं, तो भी उन रोगियों की पीड़ा दूर नहीं कर पाते हैं। बहुत-सी औषधियों कर संग्रह करने वाले चिकित्सकों में कुशल चतुर वैद्य भी व्याधों के मारे हुए मृगों की भाँति रोगों के शिकार हो जाते हैं। वे तरह‘-तरह के काढ़े और नाना प्रकार के घी पीते रहते हैं, तो भी बड़े-बड़े हाथी जैसे वृक्षों को झुका देते हैं, वैसे ही वृद्धावस्था उनकी कमर टेढ़ी कर देती है; यह देखा जाता है। इस पृथ्वी पर मृग, पक्षी, हिंसक पशु और दरिद्र मनुष्यों को जब रोग सताता है, तब कौन उनकी चिकित्सा करने जाते हैं ? किंतु प्रायः उन्हें रोग होता ही नहीं है। परन्तु बड़े-बड़े पशु जैसे छोटे पशुओं पर आक्रमण करके उन्हें दबा देते हैं, उसी प्रकार प्रचण्ड तेजवाले, घोर एवं दुर्धर्ष राजाओं पर भी बहुत से रोग आक्रमण करके उन्हें अपने वश में कर लेते है। इस प्रकार सब लोग भवसागर के प्रबल प्रवाह में सहसा पड़कर इधर-उधर बहते हुए मोह और शोक में डूब रहे ळैं और आर्तनाद तक नहीं कर पाते हैं। विधाता के द्वारा कर्मफल-भोग में नियुक्त हुए देहधारी की मनुष्य धन, राज्य तािा कठोर तपस्या के प्रभाव से प्रकृति का उल्लंघन नहीं कर सकते। यदि प्रयत्न का फल अपने हाथ में होता तो मनुष्य न तो बूढ़े होते ओर न मरते ही। सबकी समस्त कानाएँ पूरी हो जाती और किसी को अप्रिय नहीं देखना पड़ता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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