सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व:सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
गन्धर्व कहता है- अर्जुन! तदनन्तर (वसिष्ठ जी के) आश्रम में रहती हुई अदृश्यन्ती ने शक्ति के वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र को जन्म दिया, मानो उस बालक के रुप में दूसरे शक्ति मुनि ही हो। भरतश्रेष्ठ! मुनिवर भगवान वसिष्ठ ने स्वयं अपने पौत्र के जातकर्म आदि संस्कार किये। उस बालक ने गर्भ में आकर परासु (मरने की इच्छा वाले) वसिष्ठ मुनि को पुन: जीवित रहने के लिये उत्साहित किया था; इसलिये वह लोक में पराशर के नाम से विख्यात हुआ। धर्मात्मा पराशर मुनि वसिष्ठ को ही अपना पिता मानते थे और जन्म से ही उनके प्रति पितृभाव रखते थे। परंतप कुन्तीकुमार! एक दिन ब्रह्मर्षि पराशर ने अपनी माता अद्दश्यन्ती के सामने ही वसिष्ठ जी को तात कहकर पुकारा। बेटे के मुख से परिपूर्ण अर्थ का बोधक तात यह मधुर वचन सुनकर अद्दश्यन्ती के नेत्रों में आंसू भर आये और वह उससे बोली- बेटा! ये तुम्हारे पिता के भी पिता हैं। तुम इन्हें तात तात! कहकर न पुकारो। वत्स! तुम्हारे पिता को तो वन के भीतर राक्षस खा गया। अनघ! तुम जिन्हें तात मानते हो, ये तुम्हारे तात नहीं हैं। ये तो तुम्हारे यशस्वी पिता के पूजनीय पिता हैं। माता के यों कहने पर सत्यवादी मुनिश्रेष्ठ महामना पराशर दु:ख से आतुर हो उठे। उन्होंने उसी समय सब लोकों को नष्ट कर डालने का विचार किया। उनके मन का ऐसा निश्चय जान ब्रह्मवेत्ताओं मे श्रेष्ठ महातपस्वी, महात्मा एवं तात्विक बुद्धि वाले मित्रावरुणनन्दन वसिष्ठ जी ने पराशर को ऐसा करने से रोक दिया। जिस हेतु और युक्ति से वे उन्हें रोकने में सफल हुए, वह (बताता हूं) सुनिये। वसिष्ठजी ने (पराशर से) कहा- वत्स! इस पृथ्वी पर कृतवीर्य नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे। ये नृपश्रेष्ठ वेदज्ञ भृगुवंशी ब्राह्मणों के यजमान थे। तात! उन महाराज ने सोमयज्ञ करके उसके अन्त में उन अग्रभोजी भार्गवों को विपुल धन और धान्य देकर उसके द्वारा पूर्ण संतुष्ट किया। राजाओं में श्रेष्ठ कृतवीर्य के स्वर्गवासी हो जाने पर उनके वंशजों को किसी तरह द्रव्य की आवश्यकता आ पड़ी। भृगुवंशी ब्राह्मणों के यहाँ धन है, यह जानकर वे सभी राजपुत्र उन श्रेष्ठ भार्गवों के पास याचक बनकर गये। उस समय कुछ भार्गवों ने अपनी अक्षय धनराशि को धरती में गाड़ दिया। कुल ने क्षत्रियों के भय समझकर अपना धन ब्राह्मणों को दे दिया और कुछ भृगुवंशियों ने उन क्षत्रियों को यथेष्ट धन दे भी दिया। तात! कुछ दूसरे-दूसरे कारणों का विचार करके उस समय जिन्होंने क्षत्रियों को वन प्रदान किया था। वत्स! तदनन्तर किसी क्षत्रिय से अकस्मात् धरती खोदते-खोदते किसी भृगुवंशी के घर में गड़ा हुआ धन पा लिया। तब सभी श्रेष्ठ क्षत्रियों ने एकत्र होकर उस धन को देखा। फिर तो उन्होंने क्रोध में भरकर शरण में आये हुए भृगुवंशियों का भी अपमान किया। उन महान् धनुर्धर वीरों-ने (वहाँ आये हुए) समस्त भार्गवों को तीखे बाणों से मारकर यमलोक पहुँचा दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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