सप्तनवतितम (97) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- तदनन्तर इस पृथ्वी पर राजा प्रतीप राज्य करने लगे। वे सदा सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते थे। एक समय महाराज प्रतीप गंगाद्वार हरिद्वार में गये और बहुत वर्षों तक जप करते हुए एक असान पर बैठे रहे। उस समय मनस्विनी गंगा सुन्दररुप और उत्तम गुणों से युक्त युवती रुप धारण करके जल से निकलीं और स्वाध्याय में लगे हुए राजर्षि प्रतीप के शाल-जैसे विशाल दाहिने ऊरु (जांघ) पर जा बैठीं। उस समय उनकी आकृति बड़ी लुभावनी थी; रुप देवांगनाओं के समान था और अत्यन्त मनोहर था। अपनी जांघ पर बैठी हुई उस यशस्विनी नारी से राजा प्रतीप ने पूछा- ‘कल्याणी! मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? तुम्हारी क्या इच्छा है?’ स्त्री बोली- राजन्! मैं आपको ही चाहती हूँ। आपके प्रति मेरा अनुराग है, अत: आप मुझे स्वीकार करें; क्योंकि काम के अधीन होकर अपने पास आयी हुई स्त्रियों का परित्याग साधु पुरुष ने निन्दित माना है। प्रतीप ने कहा- सुन्दरी! मैं कामवश परायी स्त्री के साथ समागम नहीं कर सकता। जो अपने वर्ण की न हो, उससे भी मैं सम्बन्ध नहीं रख सकता। कल्याणि! यह मेरा धर्मानुकूल व्रत है। स्त्री बोली- राजन्! मैं अशुभ या अमंगल करने वाली नहीं हूं, समागम के अयोग्य भी नहीं हूँ और ऐसी भी नहीं हूँ कि कभी कोई मुझ पर कलंक लगाये। मैं आपके प्रति अनुरक्त होकर आयी हुई दिव्य कन्या एवं सुन्दरी स्त्री हूँ। अत: आप मुझे स्वीकार करें। प्रतीप ने कहा- सुन्दरी! तुम जिस प्रिय मनोरथ की पूर्ति के लिये मुझे प्रेरित कर रही हो, उसका निराकरण भी तुम्हारे द्वारा ही हो गया। यदि मैं धर्म के विपरीत तुम्हारा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लूं तो धर्म का यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा। वरांगने! तुम मेरी दाहिनी जांघ पर आकर बैठी हो। भीरु! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधु का आसन है। पुरुष की बायीं जांघ ही कामिनी के उपभोग के योग्य है; किंतु तुमने उसका त्याग कर दिया है। अत: वरांगने! मैं तुम्हारे प्रति कामयुक्त आचरण नहीं करूंगा। सुश्रोणि! तुम मेरी पुत्रवधु हो जाओ। मैं अपने पुत्र के लिये तुम्हारा वरण करता हूं; क्योंकि वाभोरू! तुमने यहाँ आकर मेरी उसी जांघ का आश्रय लिया है, जो पुत्रवधु के पक्ष की है। स्त्री बोली- धर्मज्ञ नरेश! आप जैसा कहते हैं, वैसा भी हो सकता है। मैं आपके पुत्र के साथ संयुक्त होऊंगी। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, उसके कारण मैं विख्यात भरतवंश का सेवन करूंगी। पृथ्वी पर जितने राजा हैं, उन सबके आप लोग उत्तम आश्रय हैं। सौ वर्षों में भी आप लोगों के गुणों के वर्णन मैं नहीं कर सकती। आपके कुल में जो विख्यात राजा हो गये हैं, उनकी साधुता सर्वोपरि है। धर्मज्ञ! मैं एक शर्त के साथ आपके पुत्र से विवाह करूंगी। प्रभो! मैं जो कुछ भी आचरण करूं वह सब आपके पुत्र को स्वीकार होना चाहिये। वे उनके विषय में कभी कुछ विचार न करें। इस शर्त पर रहती हुई मैं आपके पुत्र के प्रति अपना प्रेम बढ़ाऊंगी। मुझसे जो पुण्यात्मा एवं प्रिय पुत्र उत्पन्न होंगे, उनके द्वारा आपके पुत्र को स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज