अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
गन्धर्व कहता हैं- अर्जुन! महात्मा वसिष्ठ के यों कहने पर उन ब्रह्मर्षि पराशर ने अपने क्रोध को समस्त लोकों के पराभव से रोक लिया। तब सम्पूर्ण वेदवेक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी शक्तिनन्दन पराशर ने राक्षससत्र का अनुष्ठान किया। उस विस्तृत यज्ञ में अपने पिता शक्त्िा के वध को बार-बार चिन्तन करते हुए महामुनि पराशर ने राक्षस जाति के बूढ़ों तथा बालकों को भी जलाना आरम्भ किया। उस समय महर्षि वसिष्ठ ने यह सोचकर कि इसकी दूसरी प्रतिज्ञा को न तोडूं, उन्हें राक्षसों के वध से नहीं रोका। उस सत्र में तीन प्रज्वलित अग्रियों के समक्ष महामुनि पराशर चौथे अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। (पापी राक्षसों का संहार करने के कारण) वह यज्ञ अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध समझा जाता था। शक्तिनन्दन पराशर द्वारा उसमें यज्ञ-सामग्री का हवन आरम्भ होते ही (वह इतना प्रज्वलित हो उठा कि) उसके तेज से सम्पूर्ण आकाश ठीक उसी तरह उद्भासित होने लगा, जैसे वर्षा बीतने द्वारा सूर्य की प्रभा से उद्दीप्त हो उठता है। उस समय वसिष्ठ आदि सभी मुनियों की वहाँ तेज से प्रकाशमान महर्षि पराशर दूसरे सूर्य के समान जान पड़ते थे। तदनन्तर दूसरों के लिये उस यज्ञ को समाप्त कराने की इच्छा से पराशर के पास आये। शत्रुओं की नाश करने वाले अर्जुन! उसी प्रकार पुलस्त्य, पुलहा क्रतु और महाक्रतु ने भी राक्षसों के जीवन की रक्षा के लिये वहाँ पदार्पण किया। भरतकुलभूषण कुन्तीकुमार! उन राक्षसों का विनाश ऐसा होता देख महर्षि पुलस्त्य ने शत्रुसूदन पराशर को यह बात कही- 'तात! तुम्हारे इस यज्ञ में कोई विघ्न तो नहीं पड़ा? बेटा! तुम्हारे पिता की हत्या के विषय में कुछ भी न जानने वाले इन सभी निर्दोष राक्षसों का वध करके क्या तुम्हें प्रसन्नता होती है? वत्स! मेरी संतति का तुम्हें इस प्रकार उच्छेद नहीं करना चाहिये। तात! यह हिसा तपस्वी ब्राह्मणों का धर्म सभी नहीं मानी गयी। पराशर! शान्त रहना ही (ब्राह्मणों का) श्रेष्ठ धर्म हैं, अत: उसी का आचरण करो। तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी यह पापकर्म करते हो? तुम्हारे पिता शक्ति धर्म के ज्ञाता थे, तुम्हें (इस अधर्म-कृत्य द्वारा) उनकी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। फिर मेरी संतानों का विनाश करना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। वसिष्टकुलभूषण! शक्त्िा के शाप से ही उस समय वैसी दुर्घटना हो गयी थी। वे अपने ही अपराध के इस लोक को छोड़कर स्वर्गवासी हुए हैं (इसमें राक्षसों का कोई दोष नहीं है)। मुने! कोई भी राक्षस उन्हें खा नहीं सकता था। अपने ही शाप से (राजा को नरभक्षी राक्षस बना दने के कारण) उन्हें उस समय अपनी मृत्यु देखती पड़ी। पराशर! विश्वामित्र तथा राजा कल्माषपाद भी इसमें निमितपात्र ही थे (तुम्हारे पूर्वजों की मृत्यु में तो प्रारब्ध ही प्रधान है)। इस समय तुम्हारे पिता शक्त्िा स्वर्ग में जाकर आनन्द भोगते हैं। महामुने! वसिष्ठ जी के शक्ति से छोटे जो पुत्र थे, वे सभी देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक सुख भोग रहे हैं। महर्षे! तुम्हारे पितामह वसिष्ठ जी को ये सब बातें विदित हैं। तात शक्तिनन्दन! तेजस्वी राक्षसों के विनाश के लिये आयोजित इस यज्ञ में तुम भी निमितमात्र ही बने हो (वास्तव में यह सब उन्हीं के पूर्व कर्मों का फल है)। अत: अब इस यज्ञ को छोड़ दो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे इन सत्र की समाप्ति हो जानी चाहिये। गन्धर्व कहता है- अर्जुन! पुलस्त्य जी तथा परम बुद्धिमान् वसिष्ठ जी के यों कहने पर महामुनि शक्ति पुत्र पराशर ने उसी समय यज्ञ को समाप्त कर दिया। सम्पूर्ण राक्षसों के विनाश के उद्देश्य से किये जाने वाले उस सत्र के लिये जो अग्नि संचित की गयी थी, उसे उन्होंने उत्तर दिशा में हिमालय के आस-पास के विशाल वन में छोड़ दिया। वह अग्नि आज भी वहाँ सदा प्रत्येक पर्व के अवसर पर राक्षसों, वृक्षों और पत्थरों को जलाती हुई देखी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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