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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन के पूछने पर भीष्म का कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय देना
- धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! जब अर्जुन ने युद्धभूमि में भीष्म का वध करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब दुर्योधन आदि मेरे मूर्ख पुत्रों ने क्या किया। (1)
- अर्जुन सुदृढ धनुष धारण करते हैं। इसके सिवा भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं; अत: मैं रणभूमि में अपने पिता गंगानन्दन भीष्म को उनके द्वारा मारा गया ही मानता हूँ। (2)
- अर्जुन की उस प्रतिज्ञा को सुनकर अमित बुद्धिमान योद्धाओं में श्रेष्ठ महाधनुर्धर भीष्म ने क्या कहा? (3)
- कौरव कुल का भार वहन करने वाले परम बुद्धिमान और पराक्रमी गंगा पुत्र भीष्म ने सेनापति का पद प्राप्त करने के पश्चात युद्ध के लिये कौनसी चेष्टा की? (4)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर संजय ने अमित तेजस्वी कुरुवृद्ध भीष्म ने जैसा कहा था, वह सब कुछ राजा धृतराष्ट्र को बताया। (5)
- संजय बोले- नरेश्वर! सेनापति का पद प्राप्त करके शान्तनुनन्दन भीष्म ने दुर्योधन का हर्ष बढ़ाते हुए से उससे यह बात कही- (6)
- राजन! मैं हाथ में शक्ति धारण करने वाले देव सेनापति कुमार कार्तिकेय को नमस्कार करके अब तुम्हारी सेना का अधिपति होऊँगा, इसमें संशय नहीं है। (7)
- मुझे सेना सम्बन्धी प्रत्येक कर्म का ज्ञान है। मैं नाना प्रकार के व्यूहों के निर्माण में भी कुशल हूँ। तुम्हारी सेना में जो वेतन भोगी अथवा वेतन न लेने वाले मित्र सेना के सैनिक हैं, उन सबसे यथायोग्य काम करा लेने की भी कला मुझे ज्ञात है। (8)
- महाराज! मैं युद्ध के लिये यात्रा करने, तथा विपक्षी के चलाये हुए अस्त्रों का प्रतीकार करने के विषय में जैसा बृहस्पति जानते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण आवश्यक बातों की विशेष जानकारी रखता हूँ। (9)
- मुझ में देवता, गन्धर्व और मनुष्य- तीनों की ही व्यूहरचना का ज्ञान है। उनके द्वारा मैं पाण्डवों को मोहित कर दूंगा। अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिए। (10)
- राजन! मैं तुम्हारी सेना की रक्षा करता हुआ शास्त्रीय विधान के अनुसार यथार्थरूप से पाण्डवों के साथ युद्ध करूंगा। अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जाये। (11)
- दुर्योधन बोला- महाबाहु गंगानन्दन! मैं आपसे सत्य कहता हूं, मुझे असुरों से भी कभी भय नहीं होता है। (12)
- फिर जब आप जैसे दुर्धर्ष वीर हमारे सेनापति के पद पर स्थित हैं तथा युद्ध का अभिनन्दन करने वाले पुरुषसिंह द्रोणाचार्य जैसे योद्धा मेरे लिये युद्ध भूमि में उपस्थित हैं, तब तो मुझे भय हो ही कैसे सकता है? (13)
- कुरुश्रेष्ठ! जब आप दोनों पुरुष प्रवर वीर मेरी विजय के लिये यहाँ खड़े हैं, तब तो अवश्य ही मेरे लिये देवताओं का राज्य भी दुर्लभ नहीं है। (14)
- कुरुनन्दन! आप शत्रुओं के तथा अपने पक्ष के रथियों और अतिरथियों की संख्या को पूर्णरूप से जानते हैं, अत: मैं इन सब राजाओं के साथ आपके मुंह से इस विषय को सुनना चाहता हूँ। (15-16)
- भीष्म बोले- राजेन्द्र गान्धारीनन्दन! तुम अपनी सेना के रथियों की संख्या श्रवण करो। भूपाल! तुम्हारी सेना में जो रथी और अतिरथी हैं, उन सबका वर्णन करता हूँ। (17)
- तुम्हारी सेना में रथियों की संख्या अनेक सहस्र, लक्ष और अर्बुदों (करोड़ों) तक पहुँच जाती है। तथापि उनमें जो प्रधान-प्रधान हैं, उनके नाम मुझसे सुनो। (18)
- सबसे पहले अपने दुशासन आदि सौ सहोदर भाइयों के साथ तुम्हीं बहुत बड़े उदार रथी हो। (19)
- तुम सब लोग अस्त्रविधा के ज्ञाता तथा छेदन-भेदनमें कुशल हो। रथ पर और हाथी की पीठ पर बैठकर भी युद्ध कर सकते हो। गदा, प्राप्त तथा ढाल-तलवार के प्रयोग में भी कुशल हो। (20)
- तुम लोग रथ के संचालन और अस्त्रों के प्रहार में भी निपुण हो। अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा भार उठाने में भी समर्थ हो। धनुष बाण की विद्या में तो तुम लोग द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के सुयोग्य शिष्य हो। (21)
- धृतराष्ट्र के ये सभी मनस्वी पुत्र पाण्डवों के साथ वैर बांधे हुए हैं। अत: युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले पांचाल योद्धाओं को ये समरभूमि मे मार डालेंगे। (22)
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