महाभारत वन पर्व अध्याय 281 श्लोक 1-18

एकाशीत्यधिकद्वशततम (281) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकाशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


रावण और सीता का संवाद

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर एक दिन जब सीता स्वामी के वियोग के दुःख से पीड़ित हो मैले कपड़े पहने केवल चूड़ामणि मात्र आभूषण धारण किये राक्षसियों से घिरी हुई एक शिला पर बैठी दीनभाव से रो रही थीं, उसी समय देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष और किम्पुरुष किसी से कभी युद्ध में परास्त न होने वाला रावण कामबाण से पीड़ित हो अशोक वाटिका में गया। वहाँ उसने सीता को देखा और कामवेदना से व्यथित होकर चह उनके समीप चला गया। रावण ने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खे थे। उसके कानों में सुन्दर मणिमय कुण्डल झलक रहे थे। वह विचित्र माला और मुकुट पहने मूर्तिमान वसन्त के समान शोभासम्पन्न जान पड़ता था।

उसने बड़े यत्न से अपने आप को वस्त्राभूषणों द्वारा सजा रक्खा था, तो भी कल्पवृक्ष के समान आल्हादजनक नहीं जान पड़ता था; अपितु श्मशान भूमि के चैत्यवृक्ष की भाँति भूषित होने पर भी भयानक प्रतीत होता था। सूक्ष्म कटिप्रदेश वाली सीता के समीप खड़ा हुआ वह राक्षस रोहिणी नक्षत्र के निकट पहुँचे हुए शनैश्चर ग्रह के समान भयंकर दिखाई देता था। कामदेव के बाणों से घायल हुआ रावण मृगी के समान भयभीत हुई उस सुन्दरी अबला को सम्बोधित करके इस प्रकार बोला- ‘सीते! आज तक तुमने जो पति पर इतना अनुग्रह दिखाया है, वह बहुत हुआ। तन्वंगि! अब मुझ पर कृपा करो, जिससे तुम्हें श्रृंगार धारण कराया जाये। वरारोहे! मुझे अंगीकार करो और बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से भूषित हो मेरी सब स्त्रियों में श्रेष्ठ तथा सुन्दरी पटरानी बनो। मेरे महल में देवताओं की कन्याएँ, गन्धर्वों की युवती स्त्रियाँ, दानव किशोरियाँ तथा दैत्यों की रमणियाँ मेरी भार्याओं के रूप में विद्यमान हैं। चौदह करोड़ पिशाच मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं। इनसे दूने नरभक्षी राक्षस मेरे सेवक हैं, जो अत्यन्त भयंकर कर्म करने वाले हैं। इनकी अपेक्षा तिगुनी संख्या मेरे आशापालक यक्षों की है। यक्षों में से कुछ ही मेरे भाई धनाध्यक्ष कुबेर की सेवा में रहते हैं।

भद्रे! वामोरु! जब मैं मधुपान की गोष्ठी में बैठता हूँ, उस समय मेरे भाई की ही भाँति मेरी सेवा में गन्धर्वों सहित अप्सराएँ उपस्थित होती हैं। मैं भी कुबेर के ही समान साक्षात् ब्रह्मर्षि विश्रवा मुनि का पुत्र हूँ। (इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर- इन चार लोकपालों के सिवा) पाँचवें लोकपाल के रूप में मेरा सुयश सर्वत्र फैला हुआ है। भामिनी! देवराज इन्द्र की भाँति मुझे भी दिव्य भक्ष्य भोज्य पदार्थ तथा नाना प्रकार के पेय रस उपलब्ध होते हैं। सुश्रोणि! वनवास का कष्ट प्रदान करने वाले तुम्हारे पूर्वकृत दुष्कर्म की समाप्ति हो जानी चाहिये; इसके लिये तुम मन्दोदरी की भाँति मेरी भार्या हो जाओ’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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