एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर महातेजस्वी और वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने बाणशय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म से पुन: प्रश्न किया। युधिष्ठिर ने पूछा- महामते! देवता, ऋषि और ब्राह्मण वैदिक प्रमाण के अनुसार सदा अहिंसा धर्म की प्रशंसा किया करते हैं। अत: नृपश्रेष्ठ! मैं पूछता हूँ कि मन, वाणी और क्रिया से भी हिंसा का ही आचरण करने वाला मनुष्य किस प्रकार उसके दु:ख से छुटकारा पा सकता है? भीष्म जी ने कहा- शत्रुसूदन! ब्रह्मवादी पुरुषों ने (मन से, वाणी से तथा कर्म से हिंसा न करना एवं मांस न खाना- इन) चार उपायों से अहिंसा धर्म का पालन बतलाया है। इनमें से किसी एक अंश की भी कमी रह गयी तो अहिंसा धर्म का पूर्णत: पालन नहीं होता। महीपाल! जैसे चार पैरों वाला पशु तीन पैरों से नहीं खड़ा रह सकता, उसी प्रकार केवल तीन ही कारणों से पालित हुई अहिंसा पूर्णत: अहिंसा नहीं कही जा सकती। जैसे हाथी के पैर के चिह्न में सभी पदगामी प्राणियों के पद चिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार पूर्वकाल में इस जगत के भीतर धर्मत: अहिंसा का निर्देश किया गया है अर्थात अहिंसा धर्म में सभी धर्मों का समावेश हो जाता है। ऐसा माना गया है। जीव मन, वाणी और क्रिया के द्वारा हिंसा के दोष से लिप्त होता है, किंतु जो क्रमश: पहले मन से, फिर वाणी से और फिर क्रिया द्वारा हिंसा का त्याग करके कभी मांस नहीं खाता, वह पूर्वोक्त तीनों प्रकार की हिंसा के दोष से भी मुक्त हो जाता है। ब्रह्मावादी महात्माओं ने हिंसा दोष के प्रधान तीन कारण बतलाये हैं- 'मन' (मांस खाने की इच्छा), 'वाणी' (मांस खाने का उपदेश) और 'आस्वाद' (प्रत्यक्ष रूप में मांस का स्वाद लेना)। ये तीनों ही हिंसा दोष के आधार हैं। इसलिए तपस्या में लगे हुए मनीषी पुरुष कभी मांस नहीं खाते हैं। राजन! अब मैं मांस भक्षण में जो दोष हैं, उनको यहाँं बता रहा हूँ, सुनो। जो मूर्ख यह जानते हुए भी कि पुत्र के मांस में और दूसरे साधारण मांसों में अन्तर नहीं है, मोहवश मांस खाता है, वह नराधम है। जैसे पिता और माता के संयोग से पुत्र की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार हिंसा करने से पापी पुरुष को विवश होकर बारंबार पापयोनि में जन्म लेना पड़ता है। जैसे जीभ से जब रस का ज्ञान होता है, तब उसके प्रति वह आकृष्ट होने लगती है, उसी प्रकार मांस का आस्वादन करने पर उसके प्रति आसक्ति बढ़ती है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि विषयों के आस्वादन से उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। संस्कृत (मसाले आदि डालकर संस्कृत किया हुआ), असंस्कृत (मसाला आदि के संस्कार से रहित), पक्व, केवल नमक मिला हुआ और अलोना- ये मांस की जो-जो अवस्थाएँ होती हैं, उन्हीं-उन्हीं में रुचिभेद से मांसाहारी मनुष्य का चित्त आसक्त होता है। मांसभक्षी मूर्ख मनुष्य स्वर्ग में पूर्णत: सुलभ होने वाले भेरी, मृदंग और वीणा के दिव्य मधुर शब्दों का सेवन कैस कर सकेंगे; क्योंकि वे स्वर्ग में नहीं जा सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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