षटपंचाशदधिकद्विशततम (256) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षटपंचाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न, नारदजी का राजा अकम्पन से मृत्यु की उत्पत्ति का प्रंसगसुनाते हुए ब्रह्माजी की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा –पितामह! ये जो असंख्य भूपाल (प्राणशून्य होकर) इस भूतल पर सेना के बीच में सो रहे हैं इनकी ओर दृष्टिपात कीजिये। ये महान् बलवान् थे तो भी संज्ञाहीन होकर पड़े हैं। इनमें से एक-एक नरेश भयानक बल से सम्पन्न था। दस-दस हजार हाथियों की शक्ति रखता था। वे सब के सब इस युद्धस्थल में अपने समान ही तेजस्वी और बलवान् मनुष्यों द्वारा मारे गये हैं। इन प्राण शक्ति सम्पन्न नरेशों को कोई दूसरा वीर संग्राम भूमि में मार सके- ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता था; क्योंकि वे सब के सब बल पराक्रम से सम्पन्न और तेजस्वी थे। किंतु इस समय ये महाबुद्धिमान् भूपाल निष्प्राण होकर पड़े हैं। इनके प्राण निकल जाने पर इनके लिये मृत शब्द का व्यवहार होता है; अर्थात् ‘ये मर गये’ ऐसा कहा जाता है। ये जो नरेश मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, इनमें बहुत-से भयानक पराक्रम से सम्पन्न हैं। यहाँ मेरे मन में यह संदेह होता है कि इन्हें मृत नाम कैसे दिया गया? किसकी मृत्यु होती है? किससे मृत्यु होती है? और किस कारण से मृत्यु यहाँ समस्त प्राणियों का अपहरण करती है? देवतुल्य पितामह! मुझे यह सब बताने की कृपा करें। भीष्मजी ने कहा - तात! प्राचीन सत्ययुग की बात है, अकम्पन नाम के एक राजा थे। एक समय संग्राम में उनका रथ नष्ट हो गया और वे शत्रु के वश में पड़ गये। उनके एक पुत्र था, जिसका नाम हरि। वह बल में भगवान् नारायण के ही समान जान पड़ता था, परंतु उस समरागण में शत्रुओं ने सेना और सेवकों सहित उस राजकुमार को मार गिराया। राजा अकम्पन स्वतन्त्र भूपाल न रहकर शत्रु के अधीन हो गये तथा पुत्र के शोक मे डूबे रहने लगे। वे शान्ति का उपाय ढूँढ़ रहे थे। इतने ही में दैवेच्छा से भूतल पर विचरते हुए देवर्षि नारद का उन्हें दर्शन हुआ। राजा ने युद्धस्थल में शत्रुओं द्वारा अपने के पकडे़ जाने एवं पुत्र की मृत्यु होने का सारा समाचार यथावत् रूप से नारदजी के सामने कह सुनाया। राजा का वह कथन सुनकर तपस्या के धनी नारद जी ने उस समय उनसे यह प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया, जो उनके पुत्र शोक को मिटाने वाला था। नारदजी बोले- राजन्! आज यह अत्यन्त विस्तृत आख्यान सुनो। पृथ्वीनाथ! मैंने इसे जैसा सुना है, वह यथावत् वृत्तान्त तुम्हें सुना रहा हूँ। प्रजा की सृष्टि करते समय महातेजस्वी पितामह ब्रह्मा ने जब बहुत से प्राणियों की सृष्टि कर डाली, तब उनकी संख्या बहुत अधिक हो गयी। इतनी अधिक प्रजाओं का होना ब्रह्माजी से सहन न हो सका। अपने धर्म से कभी च्युत न होने वाले नरेश! उस समय कहीं कोई थोड़ा सा भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जो जीव-जन्तुओं से भरा नहो। सारी त्रिलोकी अवरुद्ध हो गयी। लोगों का कहीं सॉस लेना भी असम्भव सा हो गया सबका दम घुटने लगा। भूपाल! अब ब्रह्माजी के मन में प्रजा के संहार की उनकी संख्या घटाने की चिन्ता उत्पन्न हुई। वे बहुत देर तक सोचते – विचारते रहे, परंतु प्रजा के संहार का कोई युक्ति युक्त कारण ध्यान में नहीं आया। महाराज! उस समय रोषवश ब्रह्माजी के नेत्र आदि इन्द्रिय गोलकों से अग्नि प्रकट हो गयी। राजन्! उस अग्नि से पितामह ने सम्पूर्ण दिशाओं को दग्ध करना आरम्भ किया। राजन्! तब भगवान् ब्रह्मा के क्रोध से प्रकट हुई वह आग स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत् को जलाने लगी। प्रपितामह ब्रह्मा के कुपित होने पर उनके क्रोध के महान् वेग से सभी स्थावर जगंम प्राणी दग्ध होने लगे। तब यज्ञ ही जिनकी जटाएँ हैं तथा जो वेदों और यज्ञों के प्रतिपालक हैं, वे शत्रुवीरों का संहार करने वाले कल्याणकारी भगवान् शिव ब्रह्माजी की शरण में गये। प्रजावर्ग के हित की इच्छा से महादेवजी के अपने सामने आने पर तेज से जलते हुए से परमदेव ब्रह्माजी उनसे इस प्रकार बोले। ‘शम्भो! मैं तुम्हें वर पाने के योग्य समझता हॅू, बोलो, आज तुम्हारी कौन–सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारे हृदय में जो भी प्रिय मनोरथ हो, उसे मैं पूर्ण करूँगा। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में मृत्यु और प्रजापति के संवादका उपक्रमविषक दो सौ छप्पनवॉ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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