महाभारत वन पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-19

त्रिनवतितम (93) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिनवतितम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


ऋषियों को नमस्कार करके पाण्डवों का तीर्थयात्रा के लिये विदा होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को तीर्थयात्रा के लिये उद्यत जान काम्यकवन के निवासी ब्राह्मण उनके निकट आकर इस प्रकार बोले- ‘महाराज! आप अपने भाइयों तथा महात्मा लोमश ऋषि के साथ पुण्य तीर्थों में जाने वाले हैं। कुरुकुललिक पाण्डुननन्दन! हमें भी अपने साथ ले चलें। महाराज! आपके बिना हम लोग उन तीर्थों की यात्रा नहीं कर सकते। मनुजेश्वर! वे सभी तीर्थ हिंसक जन्तुओं से भरे पड़े है। दुर्गम और विषम भी हैं। थोड़े से मनुष्य वहाँ यात्रा नहीं कर सकते। आपके भाई शूरवीर हैं ओर सदा श्रेष्ठ धनुष धरण किये रहते हैं। आप-जैसे शूरवीरों से सुरक्षित होकर हम भी उन तीर्थों की यात्रा पूरी कर लेंगे। भूपाल! प्रजानाथ! आपके प्रसाद से हम लोग भी उन तीर्थ और वनों की यात्रा का फल अनायास ही पा लें।

नरेश्वर! आपके बल पराक्रम से सुरक्षित हो हम भी तीर्थों में स्नान करके शुद्ध हो जायेंगे और उन तीर्थों के दर्शन से हमारे सब पाप धुल जायेंगे। भूपाल! भरतनन्दन! आप भी तीर्थों में नहाकर राजा कार्तवीर्य अर्जुन, राजर्षि अष्टक, लोमपाद और भूमण्डल में सर्वत्र विदित सम्राट वीरवर भरत को मिलने वाले दुर्लभ लोकों को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। महीपाल! प्रभास आदि तीर्थों, महेन्द्र आदि पर्वतों, गंगा आदि नदियों तथा प्लक्ष आदि वृक्षों का हम आपके साथ दर्शन करना चाहते हैं। जनेश्वर! यदि आपके मन में ब्राह्मणों के प्रति कुछ प्रेम है तो आप हमारी बात शीघ्र मान लीजिए, इससे आपका कल्याण होगा। महाबाहो! तपस्या में विघ्न डालने वाले बहुस से राक्षस उन तीर्थों में भरे पड़े हैं, उनसे आप हमारी रक्षा करने में समर्थ हैं। नरेश्वर! आप पापरहित हैं, धौम्य मुनि, परम बुद्धिमान नारद जी तथा महातपस्वी देवर्षि लोमश ने जिन–जिन तीर्थों का वर्णन किया है, उन सब में आप महर्षि लोमश जी से सुरक्षित हो हमारे साथ विधिपूर्वक भ्रमण करें।'

पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने वीर भ्राता भीमसेन आदि से घिरकर खड़े थे। उन ब्राह्मणों द्वारा इस प्रकार सम्मानित होने पर उनके नेत्रों में हर्ष के आंसू भर आये। उन्होंने देवर्षि लोमश तथा पुरोहित धौम्य जी की आज्ञा लेकर उन सब ऋषियों से ‘बहुत अच्छा’ कहकर अनुरोध स्वीकार कर लिया। तदनन्तर मन इन्द्रियों को वश में रखने वाले पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भाइयों तथा सुन्दर अंगों वाली द्रौपदी के साथ यात्रा करने का मन ही मन निश्चय किया। इतने ही में महाभाग व्यास, पर्वत और नारद आदि मनीषीजन काम्यकवन में पाण्डुनदन युधिष्ठिर से मिलने के लिये आये। राजा युधिष्ठिर ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। उनसे सत्कार पाकर वे महाभाग महर्षि महाराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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