महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-13

एकसप्‍ततितम (71) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

Prev.png

महाभारत: द्रोण पर्व: एकसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी का सृंजय के पुत्र को जीवित करना और व्‍यास जी का युधिष्ठिर को समझाकर अन्‍तर्धान होना
  • व्‍यास जी कहते हैं– राजन! इन सोलह राजाओं का पवित्र एवं आयु की वृद्धि करने वाला उपाख्‍यान सुनकर राजा सृंजय कुछ भी नहीं बोलते हुए मौन रह गये। (1)
  • उन्‍हें इस प्रकार चुपचाप बैठे देखकर भगवान नारद मुनि ने उनसे पूछा– 'महातेजस्‍वी नरेश! मैंने जो कुछ कहा है, उसे तुमने सुना और समझा है न।' (2)
  • ‘अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि जैसे शूद्र जाति की स्‍त्री से सम्‍बन्‍ध रखने वाले ब्राह्मण को दिया हुआ श्राद्ध का दान नष्‍ट[1] हो जाता है, उसी प्रकार मेरा यह सारा कहना अन्‍ततोगत्‍वा व्‍यर्थ हो गया हो’। उनके इस प्रकार पूछने पर उस समय सृंजय ने हाथ जोड़कर उत्‍तर दिया। (3)
  • ‘महाबाहु महर्षे! यज्ञ करने और दक्षिणा देने वाले प्राचीन राजर्षियों का यह परम उत्‍तम सराहनीय उपख्‍यान सुनकर मुझे ऐस विस्‍मय हुआ है कि उसने मेरा सारा शोक हर लिया है। ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य का तेज सारा अंधकार हर लेता है। अब मैं पाप[2] और व्‍यथा से शून्‍य हो गया हूँ। बताइये, आपकी किस आज्ञा का पालन करूँ।' (4-5)
  • नारद जी ने कहा– राजन! बड़े सौभाग्‍य की बात है कि तुम्‍हारा शोक दूर हो गया। अब तुम्‍हारी जो इच्‍छा हो, यहाँ मुझसे माँग लो। तुम्‍हारी वह सारी अभिलषित वस्‍तु तुम्‍हें प्राप्‍त हो जायगी। हम लोग झूठ नहीं बोलते हैं। (6)
  • सृंजय ने कहा– मुने! आप मुझ पर प्रसन्‍न हैं, इतने से ही मैं पूर्ण संतुष्‍ट हूँ। जिस पर आप प्रसन्‍न हों, उसे इस जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। (7)
  • नारद जी ने कहा- राजन! लुटेरों ने तुम्‍हारे पुत्र को प्रोक्षित पशु की भाँति व्‍यर्थ ही मार डाला है। तुम्‍हारे उस मरे हुए पुत्र को मैं कष्‍टप्रद नरक से निकालकर तुम्‍हें पुन: वापस दे रहा हूँ। (8)
  • व्‍यास जी कहते हैं– युधिष्ठिर! नारद जी के इतना कहते ही सृंजय का अद्भुत कान्तिमान पुत्र वहाँ प्रकट हो गया। उसे ऋषि ने प्रसन्‍न होकर राजा को दिया था। वह देखने में कुबेर के पुत्र के समान जान पड़ता था। (9)
  • अपने इस पुत्र से मिलकर राजा सृंजय को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन्‍होंने उत्‍तम दक्षिणाओं से युक्‍त पुण्‍यमय यज्ञों द्वारा भगवान का यजन किया। (10)
  • सृंजय का पुत्र कवच बांधकर युद्ध में लड़ता हुआ नहीं मारा गया था। उसे अकृतार्थ और भयभीत अवस्‍था में अपने प्राणों का त्‍याग करना पड़ा था। वह यज्ञकर्म से रहित और संतानहीन भी था। इसलिये नारद जी ने पुन: उसे जीवित कर दिया था। (11)
  • परंतु शूरवीर अभिमन्‍यु तो कृतार्थ हो चुका है। वह वीर शत्रुसेना के सम्‍मुख युद्ध तत्‍पर हो सहस्‍त्रों वैरियों को संतप्‍त करके मारा गया और स्‍वर्ग लोक में जा पहुँचा है। (12)
  • पुण्‍यात्‍मा पुरुष ब्रह्मचर्यपालन, उत्‍तम ज्ञान, वेद-शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍याय तथा यज्ञों के अनुष्‍ठान से जिन किन्‍ही लोकों में जाते हैं, उन्‍हीं अक्षय लोकों में तुम्‍हारा पुत्र अभिमन्‍यु भी गया है। (13)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निष्‍फल
  2. दु:ख

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः