महाभारत वन पर्व अध्याय 236 श्लोक 1-14

षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों का समाचार सुनकर धृतराष्‍ट्र का खेद और चिन्‍तापूर्ण उद्धार

जनमेजय ने पूछा- मुने इस प्रकार वन में रहकर सर्दी, गर्मी, हवा और धूप का कष्‍ट सहने के कारण जिनके शरीर अत्‍यन्‍त कृश हो गये थे, उन नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने पवित्र द्वैतवन में पूर्वोक्‍त सरोवर के पास पहुँचकर फिर कौन-सा कार्य किया।

वैशम्‍पायन जी बोले- राजन्! उस (रमणीय) सरोवर पर आकर पाण्‍डवों ने वहाँ आये हुए जनसमुदाय को विदा कर दिया और अपने रहने के लिये कुटी बनाकर वे आस-पास के रमणीय वनों, पर्वतों तथा नदी के तट प्रदेशों में विचरने लगे। इस तरह वन में रहते हुए उन वीरशिरोमणि पाण्‍डवों के पास बहुत-से स्‍वाध्‍यशील, वेदवेत्‍ता एवं पुरातन तपस्‍वी ब्राह्मण आते थे और वे नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव उनकी यथोचित सेवा-पूजा करते थे। तदनन्‍तर किसी समय कथावार्ता में कुशल एक ब्राह्मण उस वनभूमि में पाण्‍डवों के पास आया और उनसे मिलकर वह घूमता-घामता अकस्‍मात् राजा धृतराष्ट्र के दरबारमें जा पहुँचा।

कुरु कुल में श्रेष्‍ठ एवं वयोवृद्ध राजा धृतराष्‍ट्र ने उसका आदर-सत्‍कार किया। जब वह आसन पर बैठ गया, तब महाराज के पूछने पर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव के समाचार सुनाने लगा। उसने बताया- ‘इस समय पाण्‍डव हवा और गर्मी आदि का कष्‍ट सहन करने के कारण अत्‍यन्‍त कृश हो गये हैं। भंयकर दु:ख के मुंह में पड़ गये हैं और वीरपत्‍नी द्रौपदी भी अनाथ की भाँति सब ओर से क्‍लेश-ही-क्‍लेश भोग रही है’।

ब्राह्मण की ये बातें सुनकर विचित्रवीर्यनन्‍दन राजा धृतराष्‍ट्र दया से द्रवित हो बहुत दु:खी हो गये। जब उन्‍होंने सुना कि राजा के पुत्र और पौत्र होकर भी पाण्‍डव इस प्रकार दु:ख की नदी में डूबे हुए हैं, तब उनका हृदय करुणा से भर आया और वे लम्‍बी-लम्‍बी सांसें खीचते हुए किसी प्रकार धैर्य धारण करके सब कुछ अपनी ही करतूत का परिणाम समझकर यों बोले- ‘अहो! जो मेरे सभी पुत्रों में बड़े तथा सत्‍यवादी, पवित्र और सदाचारी हैं तथा जो पहले रंक मृग के (नरम) रोओं से बने हुए बिछौनों पर सोया करते थे, वे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर आजकल भूमि पर कैसे शयन करते होंगें? जिन्‍हें कभी मागधों और सूतों का समुदाय प्रतिदिन स्‍तुति-पाठ करके जगाता था, जो साक्षात् इन्द्र के समान तेजस्‍वी और पराक्रमी हैं, वे ही राजा युधिष्ठिर निश्‍चय ही अब भूमि पर सोते और पक्षियों के कलरव सुनकर रात के पिछले पहर में जागते होंगे। भीमसेन का शरीर हवा और धूप का कष्‍ट सहन करने से अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गया होगा। उनका अंग-अंग क्रोध से कांपता और फड़कता होगा। वे द्रौपदी के सामने कैसे धरती पर शयन करते होंगे? उनका शरीर ऐसा कष्‍ट भोगने योग्‍य नहीं है।

इसी प्रकार सुकुमार एवं मनस्‍वी अर्जुन, जो सदा धर्मराज युधिष्ठिर के अधीन रहते हैं, अमर्ष के कारण उनके सारे अंगों में संताप हो रहा होगा और निश्‍चय ही उन्‍हें अपनी कुटिया में अच्‍छी तरह नींद नहीं आती होगी। अर्जुन का तेज बड़ा ही भंयकर है। नकुल, सहदेव, द्रौपदी, युधिष्ठिर तथा भीमसेन को सुख से वंचित देखकर सर्प के समान फुफकारते होंगे और अमर्ष के कारण निश्‍चय ही उन्‍हें नींद नहीं आती होगी। इसी प्रकार सुख भोगने के योग्‍य नकुल और सहदेव का भी सुख छिन गया है। वे दोनो भाई स्‍वर्ग के देवता अश्विनीकुमारों की भाँति रूपवान् हैं। वे भी निश्‍चय ही अशान्‍त भाव से सारी रात जागते हुए भूमि पर सोते होंगे। धर्म और सत्‍य ही उन्‍हें तत्‍काल आक्रमण करने से रोके हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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