षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद
धर्मपुत्र युधिष्ठिर मेरे अपराध पर ध्यान नहीं देंगे। अर्जुन भी उन्हीं का अनुसरण करेंगें। परन्तु इस वनवास से भीमसेन का क्रोध तो उसी प्रकार बढ़ रहा होगा, जैसे हवा लगने से आग धधक उठती है। उस क्रोध से जलते हुए वीरवर भीमसेन हाथ से हाथ मलकर इस प्रकार अत्यन्त भंयकर गर्म-गर्म सांस खींच रहे होंगे, मानो मेरे इन पुत्रों और पौत्रों को अभी भस्म कर डालेंगे। गाण्डीवधारी अर्जुन तथा भीमसेन जब क्रोध में भर जायेंगे, उस समय यमराज और काल के समान हो जायेंगे ये रणभूमि में विद्युत के समान चमकने वाले बाणों की वर्षा करके शत्रुसेना में से किसी को भी जीवित नहीं छोडेगें। दुर्योधन, शकुनि, सूतपुत्र कर्ण तथा दु:शासन-ये बड़े ही मूढ़बुद्धि हैं, क्योंकि जुए के सहारे दूसरे के राज्य का अपहरण कर रहे हैं। (ये अपने ऊपर आने वाले संकट को नहीं देखते हैं) इन्हें वृक्ष की शाखा से टपकता हुआ केवल मधु ही दिखायी देता है, वहां से गिरने का जो भारी भय है, उधर उनकी दृष्टि नहीं है। मनुष्य शुभ और अशुभ कर्म करके उसके स्वर्ग-नरकरूप फल की प्रतीक्षा करता है। वह उस फल से विवश होकर मोहित होता है। ऐसी दशा में मूढ़ पुरुष का उस मोह से कैसे छुटकारा हो सकता है? मैं सोचता हूँ कि अच्छी तरह जोते हुए खेत में बीज बोया जाये तथा ऋतु के अनुसार ठीक समय पर वर्षा भी हो, फिर भी उसमें फल न लगे, तो इसमें प्रारब्ध के अतिरिक्त अन्य किसी कारण की सिद्धि कैसे की जा सकती है? द्यूतप्रेमी शकुनि ने जूआ खेलकर कदापि अच्छा नहीं किया। साधुता में लगे हुए युधिष्ठिर ने भी जो उसे तत्काल नहीं मार डाला, यह भी अच्छा नहीं किया। इसी प्रकार कुपुत्र के वश में पड़कर मैंने भी कोई अच्छा काम नहीं किया है। इसी का फल है कि यह कौरवों का अन्त काल आ पहुँचा है। निश्चय ही बिना किसी प्रेरणा के भी हवा चलेगी ही, जो गर्भिणी है, वह समय पर अवश्य ही बच्चा जनेगी। दिन के आदि में रजनी का नाश अवश्यम्भावी है तथा रात्रि के प्रारम्भ में दिन का भी अन्त होना निश्चित है। (इसी प्रकार पाप का फल भी किसी के टाले नहीं टल सकता)। यदि यह विश्वास हो जाये, तो हम लोभ के वश होकर न करने योग्य काम क्यों करें और दूसरे भी क्यों करें एवं बुद्धिमान मनुष्य भी उपार्जित धन का दान क्यों न करे? अर्थ के उपयोग का समय प्राप्त होने पर यदि उसका सदुपयोग न किया जाये तो वह अनर्थ का हेतु हो जाता है। अत: विचार करना चाहिये कि वह धन का सदुपयोग क्यों नहीं होता और कैसे हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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