महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-15

द्वाविंश (22) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्तिपर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


क्षत्रियधर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन का पुनः राजा युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी बीच में देवस्थान का भाषण समाप्त होते ही अर्जुन ने खिन्नाचित्त होकर बैठे हुए तथा कभी धर्म से च्युत न होने वाले अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- धर्म के ज्ञाता नरश्रेष्ठ! आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार इस परम दुर्लभ राज्य को पाकर और शत्रुओं को जीतकर इतने अधिक संतप्त क्यों हो रहे हैं। महाराज! आप क्षत्रिय धर्म को स्मरण तो कीजिये क्षत्रियों के लिये संग्राम में मर जाना तो बहुसंख्यक यज्ञों से भी बढ़कर माना गया है। प्रभो! तप और त्याग ब्राह्मणों के धर्म हैं जो मृत्यु के पश्चात परलोक में धर्मजनित फल देने वाले हैं क्षत्रियों के लिये संग्राम में प्राप्त हुई मृत्यु ही पारलौकिक पुण्य फल की प्राप्ति कराने वाली है। भरतश्रेष्ठ! क्षत्रियों का धर्म बड़ा भयंकर है। उसमें सदा शस्त्र से ही काम पड़ता है और समय आने पर युद्ध में शस्त्र द्वारा उनका वध भी हो जाता है (अतः उनके लिये शोक करने का कोई कारण नहीं है)।

राजन्! ब्राह्मण भी यदि क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हो तो लोक में उसका जीवन उत्तम ही माना गया है; क्योंकि क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्राह्मण से ही हुई है। नरेश्वर! क्षत्रिय के लिये त्याग, यज्ञ, तप और दूसरे के धन से जीवन-निर्वाह का विधान नहीं है। भरतश्रेष्ठ! आप तो सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता, धर्मात्मा, राजा, मनीषी, कर्मकुशल और संसार में आगे-पीछे की सब बातों पर दृष्टि रखने वाले हैं। आप यह शोक-संताप छोड़कर क्षत्रियोचित कर्म करने के लिये तैयार हो जाइये। क्षत्रिय का हृदय तो विशेष रूप से वज्र के तुल्य कठोर होता है। नरेन्द्र! आपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार शत्रुओं को जीतकर निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया है। अब अपने मन को वश में करके यज्ञ और दान में संलग्न हो जाइये।

देखिये, इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र हैं, किंतु कर्म से क्षत्रिय हो गये हैं। उन्होंने पाप में प्रवृत्त हुए अपने ही भाई-बन्धुओं (दैत्यों) में से आठ सौ दस व्यक्तियों को मार डाला। प्रजानाथ! उनका वह कर्म पूजनीय एवं प्रशंसा के योग्य माना गया। उन्होंने उसी कर्म से देवेन्द्र पद प्राप्त कर लिया, ऐसा हमने सुना है। महाराज! नरेन्द्र! आप भी इन्द्र के समान ही चिन्ता और शोक से रहित हो दीर्घ काल तक बहुत-सी दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करते रहित ये। क्षत्रियशिरोमणे! ऐसी अवस्था में आप तनिक भी शोक न कीजिये। युद्ध में मारे गये वे सभी वीर क्षत्रिय धर्म के अनुसार शस्त्रों से पवित्र होकर परम गति को प्राप्त हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ! जो कुछ हुआ है, वह उसी रूप में होने वाला था। राजसिंह! दैव के विधान का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन-वाक्य-विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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