द्वाविंश (22) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभी सूक्ष्म शरीर में ही रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा करें। ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानना) गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)। जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है। नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है। नासिका, जीभ, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रूप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु नेत्र इनका अनुभव करते हैं। नासिका, जीभ, आँख, कान, बुद्धि और मन- ये स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते, किंतु त्वचा को उसका ज्ञान होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, मन और बुद्धि- इन्हें शब्द का ज्ञान नहीं होता है, किंतु कान को होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान और बुद्धि- ये संशय (संकल्प-विकल्प) नहीं कर सकते। यह काम मन का है। इसी प्रकार नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान, और मन- वे किसी बात का निश्चय नहीं कर सकते। निश्चयात्मक ज्ञान तो केवल बुद्धि को होता है। भामिनि! इस विषय में इन्द्रियों और मन के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक बार मन ने इन्द्रियों से कहा- 'मेरी सहायता के बिना नासिका सूँघ नहीं सकती, जीभ रस का स्वाद नहीं ले सकती, आँख रूप नहीं देख सकती, त्वचा स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकती और कानों को शब्द नहीं सुनायी दे सकता। इसलिये मैं सब भूतों में श्रेष्ठ और सनातन हूँ। मेरे बिना समस्त इन्द्रियाँ बुझी लपटों वाली आग और सूने घर की भाँति सदा श्रीहीन जान पड़ती हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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