महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-23

द्वादश (12) अध्याय: स्‍त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

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महाभारत: स्‍त्रीपर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों का धृतराष्ट्र से मिलना, धृतराष्ट्र के द्वारा भीम की लोहमयी प्रतिमा का भंग होना और शोक करने पर श्रीकृष्‍ण का उन्‍हें समझाना


वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज जनमेजय! समस्त सेनाओं का संहार हो जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने जब सुना कि हमारे बूढ़े ताऊ संग्राम में मरे हुए वीरों का अन्तयेष्टिकर्म कराने के लिये हस्तिनापुर चल दिये हैं, तब वे स्‍वयं पुत्रशोक से आतुर हो पुत्रों के ही शोक में डूबकर चिन्तामग्न हुए राजा धृतराष्ट्र के पास अपने सब भाइयों के साथ गये। उस समय दशार्हकुलनन्दन वीर महात्मा श्रीकृष्ण, सात्यकि और युयुत्सु भी उनके पीछे-पीछे गये। अत्यन्त दु:ख से आतुर और शोक से दुबली हुई द्रौपदी ने भी वहाँ आयी हुई पंचाल- महिलाओं के साथ उनका अनुसरण किया। भरतश्रेष्ठ! गंगातट पर पहुँचकर युधिष्ठिर ने कुररी की तरह आर्तस्‍वर से विलाप करती हुई स्त्रियों के कई दल देखे। वहाँ पाण्डवों के प्रिय और अप्रिय जनों के लिय हाथ उठाकर आर्तस्‍वर से रोती और करुण क्रनदन करती हुई सहस्रों महिलाओं ने राज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेर लिया। वे बोलीं– ‘अहो! राजा की वह धर्मज्ञता और दयालुता कहाँ चली गयी कि इन्होंने ताऊ, चाचा, भाई, गुरुपुत्रों और मित्रों का भी वध कर डाला। महाबाहो! द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म और जयद्रथ का भी वध करके आपके मन की कैसी अवस्‍था हुई? भरतवंशी नरेश! अपने ताऊ, चाचा और भाइयों को, दुर्जय वीर अभिमन्यु को तथा द्रौपदी के सभी पुत्रों को न देखने पर इस राज्‍य से आपका क्‍या प्रयोजन है?’ धर्मराज महाबाहु युधिष्ठिर ने कुररी की भाँति क्रन्दन करती हुई स्त्रियों के घेरे को लाँघकर अपने ताऊ धृतराष्ट्र को प्रणाम किया। तत्पश्चात सभी शुत्रुसूदन पाण्डवों ने धर्मानुसार ताऊ को प्रणाम करके अपने नाम बताये। पुत्रवध से पीड़ित हुए पिता ने शोक से व्‍याकुल हो आने पुत्रों का अन्त करने वाले पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को हृदय से लगाया; परंतु उस समय उनका मन प्रसन्न नहीं था।

भरतनन्दन! धर्मराज को हृदय से लगाकर उन्हे सान्तवना दे धृतराष्ट्र भीम को इस प्रकार खोजने लगे, मानो आग बनकर उन्हें जला डालना चाहते हों। उस समय उनके मन में दुर्भावना जाग उठी थी। शोकरूपी वायु से बढ़ी हुई उनकी क्रोधमयी अग्नि ऐसी दिखायी दे रही थी, मानो वह भीमसेनरूपी वन को जलाकर भस्‍म कर देना चाहती हो। भीमसेन के प्रति उनके सुगम अशुभ संकल्प को जानकर श्रीकृष्ण ने भीमसेन को झटका देकर हटा दिया और दोनों हाथों से उनकी लोहमयी मूर्ति धृतराष्ट्र के सामने कर दी। महाज्ञानी और परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण को पहले से ही उनका अभिप्राय ज्ञात हो गया था, इसलिये उन्होंने वहाँ यह व्‍यवस्‍था कर ली थी। बलवान राजा धृतराष्ट्र उस लोहमय भीमसेन को ही असली भीम समझा और उसे दोनों बाँहों से दबाकर तोड़ डाला। राजा धृतराष्ट्र में दस हज़ार हाथियों का बल था तो भी भीम की लोहमयी प्रतिमा को तोड़कर उनकी छाती व्‍यथित हो गयी और मुँह से खून निकलने लगा। वे उसी अवस्‍था में खून से भीगकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े, मानो ऊपर की डाली पर खिले हुए लाल फूलों से सुशोभित पारिजात का वृक्ष धराशायी हो गया हो। उस समय उनके विद्वान सारथि गवल्यणपुत्र संजय ने उन्हें पकड़कर उठाया और समझा-बुझाकर शान्त करते हुए कहा- ‘आपको ऐसा नहीं करना चाहिये’। जब रोष का आवेश दूर हो गया, तब वे महामना नरेश क्रोध छोड़कर शोक में डूब गये और ‘हा भीम! हा भीम! कहते हुए विलाप करने लगे। उन्‍हें भीमसेन के वध की आशंका से पीड़ित और क्रोध-शून्‍य हुआ जान पुरुषोत्तम श्रीकृष्‍ण ने इस प्रकार कहा- ‘महाराज धृतराष्ट्र! आप शोक न करें। ये भीम आपके हाथ से नहीं मारे गये हैं। प्रभो! यह तो लोहे की एक प्रतिमा थी, जिसे आपने चूर-चूर कर डाला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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