महाभारत वन पर्व अध्याय 154 श्लोक 1-19

चतुष्पंचाशदधिकशततम (154) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुष्पंचाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन के द्वारा क्रोधवश नामक राक्षसों की पराजय और द्रौपदी के लिये सौगन्धिक कमलों का संग्रह करना

भीमसेन बोले- 'राक्षसो! मैं धर्मराज युधिष्ठिर का छोटा भाई पाण्डुपुत्र भीमसेन हूँ और भाइयों के साथ विशाल बदरी नामक तीर्थं में आकर ठहरा हूँ। वहाँ पांचाल राजकुमारी द्रौपदी ने सौगन्धिक नामक एक परम उत्‍तम कमल देखा। उसे देखकर वह उसी तरह के और भी बहुत-से पुष्प प्राप्त करना चाहती है, जो निश्चय ही यहीं से हवा में उड़कर वहाँ पहुँचा होगा। निशाचरो! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं उसी अनिन्ध सुन्दरी धर्मपत्नी का प्रिय मनोरथ पूर्ण करने के लिये उद्यत हो बहुत-से सौगन्धिक पुष्पों का अपहरण करने के लिये ही यहाँ आया हूँ।'

राक्षसों ने कहा- 'नरश्रेष्ठ! यह सरोवर कुबेर की परम प्रिय क्रीड़ास्थली है। इसमें मरणधर्मा मनुष्‍य विहार नहीं कर सकता। वृकोदर! देवर्षि, यक्ष तथा देवता भी यक्षराज कुबेर की अनुमति लेकर ही यहाँ का जल पीते और इसमें विहार करते हैं। पाण्डुनन्दन! गन्धर्व और अप्सराएं भी इसी नियम के अनुसार यहाँ विहार करती हैं। जो कोई दुराचारी पुरुष धनाध्यक्ष कुबेर की अवहेलना करके अन्यायपूर्वक यहाँ विहार करना चाहेगा, वह नष्ट हो जायेगा, इसमें संशय नहीं है। भीमसेन! तुम अपने बल के घमंड में आकर कुबेर की अवहेलना करके यहाँ से कमल पुष्पों का अपहरण करना चाहते हो। ऐसी दशा में अपने-आपको धर्मराज का भाई कैसे बता रहे हो? पहले यक्षराज की आज्ञा ले लो, उसके बाद इस सरोवर का जल पीओ और यहां से कमल के फूल ले जाओ। ऐसा किये बिना तुम यहां के किसी कमल की ओर देख भी नहीं सकते।'

भीमसेन बोले- 'राक्षसो! प्रथम तो मैं यहाँ आसपास कहीं भी धनाध्यक्ष कुबेर को देख नहीं रहा हूं, दूसरे यदि मैं उन महाराज को देख भी लूं तो भी उनसे याचना नहीं कर सकता, क्योंकि क्षत्रिय किसी से कुछ मांगते नहीं हैं, यही उनका सनातन धर्म है। मैं किसी तरह क्षात्र-धर्म को छोड़ना नहीं चाहता। यह रमणीय सरोवर पर्वतीय झरनों से प्रकट हुआ है, यह महामना कुबेर के घर में नहीं है। अतः इस पर अन्य सब प्राणियों का और कुबेर का भी समान अधिकार है। ऐसी सार्वजनिक वस्तुओं के लिये कौन किस से याचना करेगा?'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सभी राक्षसों से ऐसा कहकर अमर्ष में भरे हुए महाबली महाबाहु भीमसेन उस सरोवर में प्रवेश करने लगे। उस समय क्रोध में भरे राक्षस चारों ओर से प्रतापी भीम को फटकारते हुए वाणी द्वारा रोकने लगे- 'नहीं-नहीं, ऐसा न करो'। परंतु भयंकर पराक्रमी महातेजस्वी भीम उन सब राक्षसों की अवहेलना करके उस जलाशय में उतर ही गये। यह देख सब राक्षस उन्हें रोकने की चेष्टा करते हुए चिल्ला उठे- 'अरे! इसे पकड़ो, बांध लो, काट डालो, हम सब लोग इस भीम को पकायेंगे और खा जायेंगे।

क्रोधपूर्वक उपर्युक्त बातें कहते और आंखें फाड़-फाड़कर देखते हुए वे सभी राक्षस शस्त्र उठाकर तुरंत उनकी ओर दौड़े। तब भीमसेन ने यमदण्ड के समान विशाल और भारी गदा उठा ली, जिस पर सोने का पत्र मढ़ा हुआ था। उसे लेकर वे बड़े वेग से उन राक्षसों पर टूट पड़े और ललकारते हुए बोले- 'खडे रहो'। यह देख वे भयंकर क्रोधवश नामक राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्छा से शत्रुओं के शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले तोमर, पट्टिश आदि आयुधों को लेकर सहसा उनकी ओर दौड़े और उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। वे सब-के-सब बड़े उग्र स्वभाव के थे। इधर भीमसेन कुन्तीदेवी के गर्भ से वायु देवताओं के द्वारा उत्पन्न होने के कारण बड़े बलवान्, शूरवीर, वेगशाली एवं शत्रुओं का वध करने में समर्थ थे। वे सदा ही सत्य एवं धर्म में रत थे। पराक्रमी तो वे ऐसे थे कि अनेक शत्रु मिलकर भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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