महाभारत वन पर्व अध्याय 108 श्लोक 1-20

अष्‍टाधिकशततम (108) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्‍टाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भगीरथ का हिमालय पर तपस्या द्वारा गंगा और महादेव जी को प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करना

लोमश जी कहते हैं- राजन! महान धनुर्धर महारथी राजा भगीरथ चक्रवर्ती नरेश थे। वे सब लोगों के मन और नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले थे। नरेश्वर! उन महाबाहु ने जब सुना कि महात्मा कपिल द्वारा हमारे (साठ हजार) पितरों की भयंकर मृत्यु हुई है और वे स्वर्ग प्राप्ति से वंचित रह गये हैं, तब उन्होंने व्‍यथि‍त हृदय से अपना राज्य मंत्री को सौंप दिया और स्वयं हिमालय के शिखर पर तपस्या करने के लिये प्रस्थान किया। नरश्रेष्‍ठ! तपस्या से सारा पाप नष्‍ट करके वे गंगाजी की आराधना करना चाहते थे। उन्होंने देखा कि गिरिराज हिमालय विविध धातुओं से विभूषि‍त नाना प्रकार के शिखरों से अलंकृत है। वायु के आधार पर उड़ने वाले मेघ चारों ओर से उसका अभिषेक कर रहे हैं। अनेकानेक नदियों, निकुंजों, घाटियों और प्रासादों (मन्दिरों) से इसकी बड़ी शोभा हो रही है। गुफाओं और कन्दराओं में छिपे हुए सिंह तथा व्याघ्रों से यह पर्वत सदा सेवित होता है।

भाँति-भाँति के कलरव करते हुए विचित्र अंगों वाले पक्षी, भृंगराज, हंस, चातक, जलमुर्ग, मोर, शतपत्र नामक पक्षी, चक्रवाक, कोकिल, चकोर, असितापांग और पुत्रप्रिय आदि इस पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ के रमणीय जलाशयों में पद्मसमूह भरे हुए हैं। सारसों के मधुर कलरव उस पर्वतीय प्रदेश को सुशोभित कर रहे हैं। हिमालय की शिलाओं पर किन्नर और अप्सरायें बैठी हैं। वहाँ के वृक्षों पर चारों ओर से दिग्गजों के दांतों की रगड़ दिखायी देती है। हिमालय के इन शिखरों पर विद्याधरगण विचर रहे हैं। नाना प्रकार के रत्न सब ओर व्याप्त हैं। प्रज्वलित जिह्वा वाले भयंकर विषधर सर्प इस गिरी प्रदेश का सेवन करते हैं। यह शैलराज कहीं तो सुवर्ण के समान उद्भासित होता है, कहीं चांदी के समान चमकता है और कहीं जलराशि के समान काला दिखायी देता है। नरश्रेष्‍ठ भगीरथ उस हिमालय पर्वत पर गये और घोर तपस्या में लग गये। उन्होंने सहस्र वर्षों तक फल, मूल और जल का आहार किया एक हजार दिव्य वर्ष बीत जाने पर महान नदी गंगा ने स्वयं साकार होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। गंगाजी ने कहा- 'महाराज तुम मुझसे क्या चाहते हो, मैं तुम्हें क्या दूँ? नरश्रेष्‍ठ बताओ, मैं तुम्हारी याचना पूर्ण करूँगी।'

राजन! उनके ऐसा कहने पर राजा भगीरथ ने हिमालयनन्दिनी गंगा को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- 'वरदायिनी महानदी! मेरे पितामह यज्ञसम्बंधी अश्व का पता लगाते हुए कपिल के कोप से यमलोक को जा पहूंचे हैं। वे सब राजा सगर के पुत्र थे और उनकी संख्या साठ हजार थी। भगवान कपिल के निकट जाकर वे सब-के-सब क्षण भर में भस्म हो गये। इस प्रकार दुर्मृत्यु से मरने के कारण उन्हें स्वर्ग में निवास नहीं प्राप्त हुआ है। महानदी! जब तक तुम अपने जल से उनके भस्म हुए शरीरों को सींच न दोगी, तब तक उन सगरपुत्रों की सद्गति नहीं हो सकती। महानदी! मेरे पितामह सगरकुमारों को स्वर्ग में पहुँचा दो। महानदी! मैं उन्हीं के उद्धार के लिये तुम से याचना करता हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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