महाभारत वन पर्व अध्याय 212 श्लोक 1-12

द्वादशाधिकद्विशततम (212) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वादशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


तीनों गुणों के स्वरूप और फल का वर्णन

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- भारत! इस प्रकार धर्मव्याध द्वारा सूक्ष्‍म तत्‍व का निरूपण होने पर कौशिक ब्राह्मण ने एकाग्रचित्त होकर पुन: एक सूक्ष्‍म प्रश्न उपस्थित किया। ब्राह्मण बोला- व्‍याध! यहाँ यथोचित रूप से एक प्रश्न उपस्थित करता हूँ। वह यह है कि सत्‍व, रज और तम का गुण (स्‍वरूप) क्‍या है? यह मुझे यथार्थ रूप से बताओ।

धर्मव्‍याध ने कहा- ब्रह्मन्! आप मुझसे जो बात पूछ रहे हैं, मैं अब उसे कहूंगा। सत्‍व, रज और तम-इन तीनों गुणों का पृथक्-पृथक् वर्णन करता हूं, सुनिये। इन तीनों गुणों में जो तमोगुण है, वह मोहात्‍मक मोह उत्‍पन्न करने वाला है। रजोगुण कर्मों में प्रवृत्त करने वाला है। परंतु सत्‍वगुण में प्रकाश की बहुलता है, इसलिये वह सबसे श्रेष्‍ठ कहा जाता है।

जिसमें अज्ञान की बहुलता है, जो मूढ़ (मोहग्रस्‍त) और अचेत होकर सदा नींद लेता रहता है, जिसकी इन्द्रियां वश में न होने के कारण दूषित हैं, जो अविवेकी, क्रोधी और आलसी है, ऐसे मनुष्‍य को तमोगुणी जानना चाहिये। ब्रह्मर्षे! जो प्रवृत्तिमार्ग की ही बातें करने वाला, सलाह देने में कुशल और दूसरों के गुणों में दोष न देखने वाला है; जो सदा कुछ-न-कुछ करने की इच्‍छा रखता है, जिसमें कठोरता और अभिमान की अधिकता है, वह मनुष्‍यों पर रोब जमाने वाला पुरुष रजोगुणी कहा गया है। जिसमें प्रकाश (ज्ञान) की बहुलता है, जो धीर और नये-नये कार्य आरम्‍भ करने की उत्‍सुकता से रहित है, जिसमें दूसरों के दोष देखने की प्रवृत्ति का अभाव है, जो क्रोधशून्‍य, बुद्धिमान और जितेन्द्रिय है, वह मनुष्‍य सात्त्विक माना जाता है।

सात्त्विक पुरुष ज्ञानसम्‍पन्न हो रजोगुण और तमोगुण के कार्यभूत लौकिक व्‍यवहार में पड़ने का कष्‍ट नहीं उठाता। जब जानने योग्‍य तत्‍व को जान लेता है, तब उसे सांसारिक व्यवहार से ग्‍लानि हो जाती है। सात्त्विक पुरुष में वैराग्‍य का लक्षण पहले ही प्रकट हो जाता है। उसका अहंकार ढीला पड़ जाता है और सरलता प्रकाश में आने लगती है। तदनन्‍तर इसके राग-द्वेष आदि सम्‍पूर्ण द्वन्‍द्व परस्‍पर शान्‍त हो जाते है। इसके हृदय में कभी कोई संशय नहीं उठता। ब्रह्मन्! शूद्रयोनि में उत्‍पन्न मनुष्‍य भी यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले, तो वह वैश्‍य तथा क्षत्रिय भाव को प्राप्‍त कर लेता है। जो ‘सरतला’ नामक गुण में प्रतिष्ठित है, उसे ब्राह्मणत्‍व प्राप्‍त हो जाता है। ब्रह्मन्! इस प्रकार मैंने आपसे सम्‍पूर्ण गुणों का वर्णन किया है, अब और क्‍या सुनना चाहते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मण-व्‍याध संवाद विषयक दो सौ बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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