महाभारत विराट पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-11

पंचचत्वारिंश (45) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: पंचचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी, अस्त्र - शस्त्रों का स्मरण, उनसे वार्तालाप तथा उत्तर के भय का निवारण

उत्तर बोला - वीरवर! आप सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो मुझ सारथि के साथ किस सेना की ओर चलेंगे ? आप जहाँ चलने के लिये आज्ञा देंगे, वहीं मैं आपके साथ चलूँगा। अर्जुन ने कहा - पुरुषसिंह! अब तुम्हें कोई भय नहीं रहा, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। रण कर्म में कुशल वीर! मैं तुम्हारे सब शत्रुओं को अभी मार भगाता हूँ। महाबाहो! तुम स्वस्थ चित्त ( निश्चिन्त ) हो जाओ और इस संग्राम में मुझे शत्रुओं के साथ युद्ध तथा अत्यनत भयंकर पराक्रम करते देखो। मेरे इन सब तरकसों की शीघ्र रथ में बाँध दो और एक सुवर्ण भूषित खड्ग भी ले आगो।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अर्जुन का यह कथन संनकर उत्तर उतावला हो अर्जुन के सब आयुधों को लेकर शीघ्रता पूर्वक वृक्ष से उतर आया। अर्जुन बोले - मैं कौरवों से युद्ध करूँगा औश्र तुम्हारे पशुओं को जीत लूँगा। मुझसे सुरक्षित होकर रथ का यह ऊपरी भाग ही तुम्हारे लिये नगर हो जायगा। इस रथ के जो धुरी पहिये आदि अंग हैं, उनकी सुदृढ़ कल्पना ही नगर की गलियों के दोनों भागों में बने हुए गृहों का विस्तार है। मेरी दोनों भुजाएँ ही चाहरदीवारी और नगर द्वार हैं। इस रथ में जो त्रिदण्ड ( हरिस और उसके अगल - बगल की लगडि़याँ ) तथा तूणीर आदि हैं, वे किसी को यहाँ तक फटकने नहीं देंगे। जैसे नगर में हाथी सवार, घुड़सवार तथा रथी इन त्रिविध सेनाओं मथा आयुधों के कारण उसके भीतर दूसरों का प्रवेश करना असम्भव होता है।

नगर में जैसे बहुत सी ध्वजा पताकाएँ फहराती हैं, उसी प्रकार इस रथ में भी फहरा रही हैं। धनुष की प्रत्यन्चा ही नगर में लगी हुई तोप की नली है, जिसका क्रोध पूर्वक उपयोग होता है और रथ के पहियों की घर्घराहट को ही नगर में बजने वाले नगाड़ों की आवाज समझो। जब मैं युद्ध भूमि में गाण्डीव धनुष लेकर रथ पर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओं की सेनाएँ मुझे जीत नहीं सकेंगी; अतः विराट नन्दन! तुम्हारा भय अब दूर हो जाना चाहिये। उत्तर ने कहा - अब मैं उनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप संग्राम भूमि में भगवान श्रीकृष्ण और साक्षात् इन्द्र के समान स्थिर रहने वाले हैं। केवल इसी एक बात को सोचकर मैं ऐसे मोह में पड़ जाता हूँ कि बुद्धि अच्छी न होने के कारण किसी तरह भी किसी निश्चय तक नहीं पहुँच पाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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