महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 210 श्लोक 1-17

दशाधिकद्विशततम (210) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

गुरु-शिष्‍य के संवाद का उल्‍लेख करते हुए श्रीकृष्‍ण – सम्‍बन्‍धी अध्‍यात्‍मतत्‍व का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा – वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ तात भरतनन्‍दन! आप मुझे मोक्ष के साधनभूत परम योग का उपदेश कीजिये। मैं उसे यथार्थरूप से जानना चाहता हूँ। भीष्‍म जी बोले – राजन्! इस विषय में एक शिष्‍य का गुरु के साथ जो मोक्ष सम्‍बन्‍धी संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। किसी समय की बात है, एक विद्वान् ब्राह्मण श्रेष्‍ठ आसन पर विराजमान थे। वे आचार्य कोटि के पण्डित और श्रेष्‍ठतम महर्षि थे। देखने में महान् तेज की राशि जान पड़ते थे। बड़े महात्‍मा, सत्‍यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। एक दिन उनकी सेवा में कोई परम मेधावी कल्‍याणकामी एवं समाहितचित्‍त शिष्‍य आया (जो चिरकाल तक उनकी शुश्रुषा कर चुका था), वह उनके दोनों चरणों में प्रणाम करके हाथ जोड़ सामने खड़ा हो इस प्रकार बोला। ‘भगवन्! यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्‍न हैं तो मेरे मन में जो एक बड़ा भारी संदेह हैं, उस दूर करने की कृपा करे –मेरे प्रश्‍न की विशद व्‍याख्‍या करें। मैं इस संसार में कहाँ से आया हूँ और आप भी कहाँ से आये हैं ? यह भलीभाँति समझाकर बताइये। इसके सिवा जो परम तत्‍व हैं, उसका भी विवेचन कीजिये।

‘द्विजश्रेष्‍ठ! पृथ्‍वी आदि सम्‍पूर्ण महाभूत सर्वत्र समान है; सम्‍पूर्ण प्राणियों के शरीर उन्‍हीं से निर्मित हुए हैं तो भी उनमें क्षय और वृद्धि – ये दोनों विपरीतभाव क्‍यों होते हैं ? ‘वेदों और स्‍मृतियों में भी जो लौकिक और व्‍यापक धर्मो का वर्णन है, उनमें भी विषमता है। अत: विद्वन्! इन सबकी आप यथार्थरूप से व्‍याख्‍या करें’।

गुरु ने कहा – वत्‍स! सुनो। महामते! तुमने जो बात पूछी हैं, वह वेदों का उत्‍तम एवं गूढ़ रहस्‍य है। यही अध्‍यात्‍मतत्‍व है तथा यही समस्‍त विद्याओं और शास्‍त्रों का सर्वस्‍व हैं। सम्‍पूर्ण वेद का मुख जो प्रणव है वह तथा सत्‍य, ज्ञान, यज्ञ, तितिक्षा, इन्द्रिय-संयम, सरलता और परम तत्‍व-यह सब कुछ वासुदेव ही है। वेदज्ञजन उसी को सनातन पुरुष और विष्‍णु भी मानते हैं। वही संसार की सृष्टि और प्रलय करने वाला अव्‍यक्‍त एवं सनातन ब्रह्मा है। वही ब्रह्मा वृष्णिकुल में श्रीकृष्‍णरूप में अवतीर्ण हुआ, इस कथा को तुम मुझसे सुनो ।

ब्राह्मण ब्राह्मण को, क्षत्रिय क्षत्रिय को, वैश्‍य वैश्‍य को तथा शूद्र महामनस्‍वी शूद्र को, अमित तेजस्‍वी देवाधिदेव विष्‍णु का माहात्‍म्‍य सुनावे। तुम भी यह सब सुनने के योग्य अधिकारी हो; अत: भगवान श्रीकृष्‍ण का जो कल्‍याणमय उत्‍कृष्‍ट माहात्‍म्‍य है, उसे सुनो। यह जो सृष्टि प्रलयरूप अनादि, अनन्‍त कालचक्र हैं, वह श्रीकृष्‍ण का ही स्‍वरूप हैं। सर्वभूतेश्‍वर श्रीकृष्‍ण ये तीनों लोक चक्र की भाँति घूम रहे हैं।

पुरुषसिंह! पुरुषोतम श्रीकृष्‍ण को ही अक्षर, अव्‍यक्‍त, अमृत एवं सनातन परब्रह्मा कहते है। ये अविनाशी परमात्‍मा श्रीकृष्‍ण ही पितर, देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस, नाग, असुर और मनुष्‍य आदि की रचना करते हैं। इसी प्रकार प्रलयकाल बीतने पर कल्‍प के आरम्‍भ में प्रकृति का आश्रय ले भगवान श्रीकृष्‍ण ही ये वेद-शास्‍त्र और सनातन लोक-धर्मो को पुन: प्रकट करते हैं। जैसे ऋतु परिवर्तन के साथ ही भिन्‍न–भिन्‍न ऋतुओं के नाना प्रकार के वे ही वे लक्षण प्रकट होते रहते हैं, वैसे ही प्रत्‍येक कल्‍प के आरम्‍भ में पूर्व कल्‍पों के अनुसार तदनुरूप भावों की अभिव्‍यक्ति होती रहती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः