एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! कृपाचार्य का जन्म किस प्रकार हुआ? यह मुझे बताने की कृपा करें। वे सरकंडे के समूह से किस तरह उत्पन्न हुए एवं उन्होंने किस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की?। वैशम्पायन जी ने कहा- महाराज! महर्षि गौतम के शरद्वान् गौतम[1] नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र थे। प्रभो! कहते हैं, वे सरकंडों के साथ उत्पन्न हुए थे। परंतप! उनकी बुद्धि धनुर्वेद में जितनी लगती थी, उतनी वेदों के अध्ययन में नहीं। जैसे अन्य ब्रह्मचारी तपस्यापूर्वक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने तपस्या युक्त होकर सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। वे धनुर्वेद में पारंगत तो थे ही, उनकी तपस्या भी बड़ी भारी थी, इससे गौतम ने देवराज इन्द्र को अत्यन्त चिन्ता में डाल दिया था। कौरव! तब देवराज ने जानपदी नाम की एक देवकन्या को उनके पास भेजा और यह आदेश किया कि ‘तुम शरद्वान् की तपस्या में विघ्न डालो’। वह जानपदी शरद्वान् के रमणीय आश्रम पर जाकर धनुष धारण करने वाले गौतम को लुभाने लगी। गौतम ने एक वस्त्र धारण करने वाली उस अप्सरा को वन में देखा। संसार में उसके सुन्दर शरीर की कहीं तुलना नहीं थी। उसे देखकर शरद्वान् के नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उनके हाथों से धनुष और बाण छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़े तथा उसकी ओर देखने से उनके शरीर में कम्प हो आया। शरद्वान् ज्ञान में बहुत बढ़े-चढ़े थे और उनमें तपस्या की भी प्रबल शक्ति थी। अत: वे महाप्राज्ञ मुनि अत्यन्त धीरता-पूर्वक अपनी मर्यादा में स्थित रहे। राजन्! किंतु उनके मन में सहसा जो विकार देखा गया, इससे उनका वीर्य स्खलित हो गया; परंतु इस बात का उन्हें भान नहीं हुआ। वे मुनि बाण सहित धनुष, काला मृगचर्म, वह आश्रम और वह अप्सरा- सबको वहीं छोड़कर वहाँ से चल दिये उनका वह वीर्य सरकंडे के समुदाय पर गिर पड़ा। राजन्! वहाँ गिरने पर उनका वीर्य दो भागों में बंट गया। तदनन्तर गौतमनन्दन शरद्वान् के उसी वीर्य से एक पुत्र और एक कन्या की उत्पत्ति हुई। उस दिन दैवच्छा से राजा शान्तनु वन में शिकार खेलने आये थे। उनके किसी सैनिक ने वन में उन युगल संतानों को देखा। वहाँ बाणसहित धनुष और काला मृगचर्म देखकर उसने यह जान लिया कि ‘ये दोनों किसी धनुर्वेद के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण की संतानें हैं’ ऐसा निश्चय होने पर उसने राजा को ये दोनों बालक और बाण सहित धनुष दिखाया। राजा उन्हें देखते ही कृपा के वशीभूत हो गये और उन दोनों को साथ ले अपने घर आ गये। वे किसी के पूछने पर यही परिचय देते थे कि ‘ये दोनों मेरी ही संतानें हैं’। तदनन्तर नरश्रेष्ठ प्रतीपनन्दन शान्तनु ने शरद्वान् के उन दोनों बालकों का पालन-पोषण किया और यथा सम्भव उन्हें सब संस्कारों से सम्पन्न किया। गौतम (शरद्वान्) भी उस आश्रम से अन्यत्र जाकर धनुर्वेद के अभ्यास में तत्पर रहने लगे। राजा शन्तनु ने यह सोचकर कि मैंने इन बालकों को कृपापूर्वक पाला पोसा है, उन दोनों के वे ही नाम रख दिये- कृप और कृपी। राजा के द्वारा पालित हुई अपनी दोनों संतानों का हाल गौतम ने तपोबल से जान लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गौतमगोत्रीय होने के कारण शरद्वान को भे गौतम कहा जाता था।
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