महाभारत वन पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-11

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


अष्टावक्र का द्वारपाल तथा राजा जनक से वार्तालाप

अष्टावक्र बोले- राजन! जब तक ब्राह्मण से सामना न हो, तब तक अंधे का मार्ग, बहरे का मार्ग, स्त्री का मार्ग, बौझ ढोने वाले का मार्ग तथा राजा का मार्ग उस-उसके जाने के लिये छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि ब्राह्मण सामने मिल जाये तो सबसे पहले उसी को मार्ग देना चाहिये।

राजा ने कहा- ब्राह्मणकुमार! लो मैंने तुम्हारे लिये आज यह मार्ग दे दिया है। तुम जिससे जाना चाहो, उसी मार्ग से इच्छानुसार चले जाओ। आग कभी छोटी नहीं होती। देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणों के आगे मस्तक झुकाते हैं।

अष्टावक्र बोले- राजन! हम दोनों आपका यज्ञ देखने के लिये आये हैं। नरेन्द्र! इसके लिये हम दोनों के हृदय में प्रबल उत्कण्ठा है। हम दोनों यहाँ अतिथि के रूप में उपस्थित हैं और यज्ञ में प्रवेश करने के लिये हम तुम्हारे द्वारपाल की आज्ञा चाहते हैं। इन्द्रद्युम्नकुमार जनक! हम दोनों यहाँ यज्ञ देखने के लिये आये हैं और आप जनकराज से मिलना तथा बात करना चाहते हैं, परंतु यह द्वारपाल हमें रोकता है; अत: हम क्रोधरूप व्याधि से दग्ध हो रहे हैं।'

द्वारपाल बोला- ब्राह्मणकुमार! सुनो, हम बन्दी के आज्ञापालक हैं। आप हमारी कही हुई बात सुनिये। इस यज्ञशाला में बालक ब्राह्मण नहीं प्रवेश करने पाते हैं। जो बूढ़े और बुद्धिमान ब्राह्मण हैं, उन्हीं का यहाँ प्रवेश होता है।

अष्टावक्र बोले- द्वारपाल! यदि यहाँ वृद्ध ब्राह्मण के लिये प्रवेश का द्वार खुला है, तब तो हमारा प्रवेश होना भी उचित ही है; क्योंकि हम लोग वृद्ध ही हैं, हमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है तथा हम वेद के प्रभाव से भी सम्पन्न हैं। साथ ही, हम गुरुजनों के सेवक, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्र में परिनिष्‍ठि‍त भी हैं। अवस्था में बालक होने के कारण ही किसी ब्राह्मण को अपमानित करना उचित नहीं बताया गया है; क्योंकि आग की छोटी-सी चिनगारी भी यदि छू जाये तो वह जला डालती है।

द्वारपाल ने कहा- ब्राह्मणकुमार! तुम वेदप्रतिपादित, एकाक्षरब्रह्म का बोध कराने वाली, अनेक रूप वाली, सुन्दर वाणी का उच्चारण करो और अपने आपको बालक ही समझो, स्वयं ही अपनी प्रशंसा क्यों करते हो? इस जगत में ज्ञानी दुर्लभ हैं।

अष्टावक्र बोले- द्वारपाल! केवल शरीर बढ़ जाने से किसी की बढ़ती नहीं समझी जाती है। जैसे सेमल के फल की गांठ बढ़ने पर भी सारहीन होने के कारण वह व्यर्थ ही है। छोटा और दुबला-पतला वृक्ष भी यदि फलों के भार से लदा है तो उसे ही वृद्ध (बड़ा) जानना चाहिये। जिसमें फल नहीं लगते, उस वृक्ष का बढ़ना भी नहीं के बराबर है।

द्वारपाल ने कहा- बालक बड़े-बूढ़ों से ही ज्ञान प्राप्त करते हैं और समयानुसार वे भी वृद्ध होते हैं। थोड़े समय में ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, अत: तुम बालक होकर भी क्यों वृद्ध की-सी बातें करते हो।

अष्टावक्र बोले- अमुक व्यक्ति के सिर के बाल पक गये हैं, इतने ही मात्र से वह बूढ़ा नहीं होता है, अवस्था में बालक होने पर भी जो ज्ञान में बढ़ा-बूढ़ा है, उसी को देवगण वृद्ध मानते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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