महाभारत वन पर्व अध्याय 133 श्लोक 12-22

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद


अधि‍क वर्षों की अवस्‍था होने से, बाल पकने से, धन बढ़ जाने से और अधि‍क भाई-बन्‍धु हो जाने से भी कोई बड़ा हो नहीं सकता; ऋषि‍यों ने ऐसा नि‍यम बनाया है कि‍ हम ब्राह्मणों में जो अंगों सहि‍त सम्‍पूर्ण वेदों का स्‍वाध्‍याय करने वाला तथा वक्‍ता है, वही बड़ा है। द्वारपाल! मैं राज्‍यसभा में बन्‍दी से मि‍लने के लि‍ये आया हूँ। तुम कमलपुष्‍प की माला धारण कि‍ये हुए महाराज जनक को मेरे आगमन की सूचना दे दो। द्वारपाल! आज तुम हमें वि‍द्वानों के साथ शास्‍त्रार्थ करते देखोगे, साथ ही वि‍वाद बढ़ जाने पर बन्दी को परास्‍त हुआ पाओगे। आज सम्‍पूर्ण सभासद चुपचाप बैठे रहें तथा राजा और उनके प्रधान पुराहि‍तों के साथ पूर्णत: ब्राह्मण मेरी लघुता अथवा श्रैष्‍ठता को प्रत्‍यक्ष देखें।

द्वारपाल ने कहा- जहाँ सुशि‍क्षि‍त वि‍द्वानों का प्रवेश होता है; उस यज्ञमण्‍डप में तुम जैसे दस वर्ष के बालक का प्रवेश होना कैसे सम्‍भव है। तथापि‍ मैं कि‍सी उपाय से तुम्‍हें उसके भीतर प्रवेश कराने का प्रयत्‍न करूंगा, तुम भी भीतर जाने के लि‍ये यथोचि‍त प्रयत्‍न करो। ये नरेश तुम्‍हारी बात सुन सकें, इतनी ही दूरी पर यज्ञमण्‍डप में स्‍थि‍त है, तुम अपने शुद्ध वचनों के द्वारा इनकी स्‍तुति‍ करो। इससे ये प्रसन्‍न होकर तुम्‍हें प्रवेश करने की आज्ञा दे देंगे तथा तुम्‍हारी और भी कोई कामना हो तो वे पूरी करेंगे।

अष्टावक्र बोले- राजन! आप जनक वंश के श्रेष्‍ठ पुरुष हैं, सम्राट हैं। आपके यहाँ सभी प्रकार के ऐश्‍वर्य परि‍पूर्ण हैं, वर्तमान समय में केवल आप ही उत्‍तम यज्ञकर्मों का अनुष्‍ठान करने वाले हैं अथवा पूर्वकाल में एकमात्र राजा ययाति‍ ऐसे हो चुके हैं। हमने सुना है कि‍ आपके यहाँ बन्‍दी नाम से प्रसि‍द्ध कोई वि‍द्वान हैं, जो वाद-वि‍वाद के मर्म को जानने वाले कि‍तने ही वृद्ध ब्राह्मणों को शास्‍त्रार्थ में हराकर वश में कर लेते हैं और फि‍र आपके ही दि‍ये हुए वि‍श्‍वसनीय पुरुषों द्वारा उन सबको नि‍:शंक होकर पानी में डुबवा देते हैं। मैं ब्राह्मणों के समीप यह समाचार सुनकर अद्वैत ब्रह्म के वि‍षय में वर्णन करने के लि‍ये यहाँ आया हूँ। वे बन्‍दी कहाँ हैं? मैं उनसे मि‍लकर उनके तेज को उसी प्रकार शान्‍त कर दूंगा, जैसे सूर्य ताराओं की ज्‍योति‍ को वि‍लुप्‍त कर देते हैं।

राजा बोले- ब्राह्मणकुमार! तुम अपने वि‍पक्षी की प्रवचन शक्‍ति‍ को जाने बि‍ना ही बन्‍दी को जीतने की इच्‍छा रखते हो। जो प्रति‍वादी के बल को जानते हों, वे ही ऐसी बातें कह सकतें हैं। वेदों का अनुशीलन करने वाले बहुत-से ब्राह्मण बन्‍दी का प्रभाव देख चुके हैं। तुम्‍हें इस बन्‍दी की शक्‍ति‍ का कुछ भी ज्ञान नहीं है। इसीलि‍ये उसे जीतने की इच्‍छा कर रहे हो। आज से पहले कि‍तने ही वि‍द्वान ब्राह्मण बन्‍दी से मि‍ले हैं और जैसे सूर्य के सामने ताराओं का प्रकाश फीका पड़ जाता है, उसी प्रकार वे बन्‍दी के सामने हतप्रभ हो गये हैं। तात! कि‍तने ही ज्ञानोन्‍मत्‍त बन्‍दी को जीतने की अभि‍लाषा रखकर शास्‍त्रार्थ की घोषण करते हुए आये हैं; कि‍तु उनके नि‍कट पहुँचते ही उनका प्रभाव नष्‍ट हो गया है। इतना ही नहीं, वे पराजि‍त एवं ति‍रस्‍कृत हो चुपचाप राजसभा से नि‍कल गये हैं। फि‍र वे अन्‍य सदस्‍यों के साथ वार्तालाप ही कैसे कर सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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