द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद
तब उन्होंने सुजाता से सब कुछ बता दिया और कहा, ‘बेटी! अपने बच्चे से इस वृत्तान्त को सदा ही गुप्त रखना’। सुजाता ने भी अपने पुत्र से उस गोपनीय समाचार को गुप्त ही रखा। इसी से जन्म लेने के बाद भी उस ब्राह्मण बालक को इसके विषय में कुछ पता न लगा। अष्टावक्र अपने नाना उद्दालक को ही पिता के समान मानते थे और श्वेतकेतु को अपने भाई के समान समझते थे। तदनन्तर एक दिन, जब अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी और वे पितृतुल्य उद्दालक मुनि की गोद में बैठे हुए थे, उसी समय श्वेतकेतु वहाँ आये और रोते हुए अष्टावक्र का हाथ पकड़कर उन्हें दूर खींच ले गये। इस प्रकार अष्टावक्र को दूर हटाकर श्वेतकेतु ने कहा- ‘यह तेरे बाप की गोद नहीं है’। श्वेतकेतु की उस कटूक्ति ने उस समय अष्टावक्र के हृदय में गहरी चोट पहुँचायी। इससे उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने घर में माता के पास जाकर पूछा- ‘मां! मेरे पिताजी कहाँ हैं’। बालक के इस प्रश्न से सुजाता के मन में बड़ी व्यथा हुई। उसने शाप के भय से घबराकर सब बात बता दी। यह सब रहस्य जानकर उन्होंने रात में श्वेतकेतु से इस प्रकार कहा- ‘हम दोनों राजा जनक के यज्ञ में चलें। सुना जाता है, उस यज्ञ में बड़े आश्चर्य की बातें देखने में आती हैं। हम दोनों वहाँ विद्वान ब्राह्मणों का शास्त्रार्थ सुनेंगे और वहीं उत्तम पदार्थ भोजन करेंगे। वहाँ जाने से हम लोगों की प्रवचन शक्ति एवं जानकारी बढ़ेगी और हमें सुमधुर स्वर में वेद-मंत्रों का कल्याणकारी घोष सुनने का अवसर मिलेगा।' ऐसा निश्चय करके वे दोनों मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धिशाली यज्ञ में गये। अष्टावक्र की यज्ञमण्डल के मार्ग में ही राजा से भेंट हो गयी। उस समय राजसेवक उन्हें रास्ते से दूर हटाने लगे, तब वे इस प्रकार बोले।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अष्टावक्रीयोपाख्यान विषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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