पंचत्वारिंश (45) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
नृपश्रेष्ठ! महायशस्वी राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार प्राप्त हुए धन का यथोचित विभाग करके उसकी शान्ति की तथा युयुत्सु एवं धृतराष्ट्र का विशेष सत्कार किया। धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा विदुरजी की सेवा में अपना सारा राज्य समर्पित करके राजा युधिष्ठिर स्वस्थ एवं सुखी हो गये। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार सम्पूर्ण नगर की प्रजा को प्रसन्न करके वे हाथ जोड़कर महात्मा वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण के पास गये। उन्होंने देखा, भगवान् श्रीकृष्ण मणियों तथा सुवर्णों से भूषित एक बड़े पलंग पर बैठे हैं, उनकी श्याम सुन्दर छवि नील मेघ के समान सुशोभित हो रही है। उनका श्रीविग्रह दिव्य तेज से उद्भासित हो रहा है। एक-एक अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित है। श्याम शरीर पर रेशमी पीताम्बर धारण किये भगवान् सुवर्णजटित नीलम के समान जान पड़ते हैं। उनके वक्षःस्थल पर स्थित हुई कौस्तुभमणि अपना प्रकाश बिखेरती हुई उसी प्रकार उनकी शोभा बढ़ाती है, मानो उगते हुए सूर्य उदयाचल को प्रकाशित कर रहे हों। भगवान् की उस दिव्य झाँकी की तीनों लोकों में कहीं उपमा नहीं थी। राजा युधिष्ठिर मानवविग्रहधारी उन परमात्मा विष्णु के समीप जाकर मुस्कारते हुए मधुर वाणी में इस प्रकार बोले-। ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अच्युत! आपकी रात सुख से बीती है न ? सारी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न तो हैं न ? ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! बुद्धिदेवी ने आपका आश्रय लिया है? प्रभो! हमने आपकी ही कृपा से राज्य पाया है और यह पृथ्वी हमारे अधिकार में आयी है। भगवन्! आप ही तीनों लोकों के आश्रय और पराक्रम हैं। आपकी ही दया से हमने विजय तथा उत्तम यश प्रापत किया हैं और धर्म से भ्रष्ट नहीं हुए हैं’। शत्रुओं का दमन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार कहते चले जा रहे थे; परंतु भगवान् ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। वे उस समय ध्यान में मग्न थे। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में श्रीकृष्ण के प्रति युधिष्ठिर का वचन विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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