नवत्यधिकशततम (190) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मनुष्यों में श्रेष्ठ महानुभाव कुन्तीपुत्र भीमसेन और अर्जुन कुम्हार के घर में प्रवेश करके अत्यन्त प्रसन्न हो माता को द्रौपदी की प्राप्ति सूचित करते हुए बोले- ‘मां! हम लोग भिक्षा लाये हैं।’ उस समय कुन्ती देवी कुटिया के भीतर थीं। उन्होंने अपने पुत्रों को देखे बिना ही उत्तर दे दिया- ‘(भिक्षा लाये हो तो) तुम सभी भाई मिलकर उसे पाओ।’ तत्पश्चात् द्रौपदी को देखकर कुन्ती ने चिन्तित होकर कहा- ‘हाय! मेरे मुंह से बड़ी अनुचित बात निकल गयी।’ कुन्ती देवी अधर्म के भय से बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; (परंतु मनोनुकूल पति की प्राप्ति से) द्रौपदी के मन में बड़ी प्रसन्नता थी। कुन्ती देवी द्रौपदी का हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास गयीं और उनसे उन्होंने यह बात कही। कुन्ती ने कहा- बेटा! यह राजा द्रुपद की कन्या द्रौपदी है। तुम्हारे छोटे भाई भीमसेन और अर्जुन ने इसे भिक्षा कहकर मुझे समर्पित किया और मैंने भी (इसे देखे बिना ही) भूल से (भिक्षा ही समझकर) अनुरुप उत्तर दे दिया- ‘तुम सब लोग इसे पाओ।’ कुरुश्रेष्ठ! बताओ, अब कैसे मेरी बात झूठी न हो? और क्या किया जाय, जिससे इस पांचालकुमारी कृष्णा को न तो पाप लगे और न नीच योनियों में ही भटकना पड़े। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! कुरुश्रेष्ठ नरवीर राजा युधिष्ठिर बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने माता की यह बात सुनकर दो घड़ी तक (मन-ही-मन) कुछ विचार किया। फिर कुन्ती देवी को भली-भाँति आश्वासन देकर उन्होंने धनंजय से यह बात कही- ‘अर्जुन, तुमने द्रौपदी को जीता है, तुम्हारे ही साथ इस राजकुमारी की शोभा होगी। शत्रुओं का सामना करने वाले वीर! तुम अग्नि प्रज्वलित करो और (अग्निदेव के साक्ष्य में) विधिपूर्वक इस राजकन्या का पाणिग्रहण करो।’ अर्जुन बोले- नरेन्द्र! आप मुझे अधर्म का भागी न बनाइये। (बड़े भाई के अविवाहित रहते छोटे भाई का विवाह हो जाय,) यह धर्म नहीं है; ऐसा व्यवहार तो अनाथों में देखा गया है। पहले आपका विवाह होना चाहिये; तत्पश्चात् अचिन्त्यकर्मा महाबाहु भीमसेन का और फिर मेरा। तत्पश्चात् नकुल फिर वेगवान् सहदेव विवाह कर सकते हैं। राजन्! भैया भीमसेन, मैं, नकुल-सहदेव तथा यह राजकन्या- सभी आपकी आज्ञा के अधीन हैं। ऐसी दशा में आप यहाँ अपनी बुद्धि से विचार करके जो धर्म और यश के अनुकूल तथा पांचालराज के लिये भी हितकर कार्य हो, वह कीजिये और उसके लिये हमें आज्ञा दीजिये। हम सब लोग आपके अधीन हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- अर्जुन के ये भक्तिभाव तथा स्नेह से भरे वचन सुनने के बाद समस्त पाण्डवों ने पांचाल राजकुमारी द्रौपदी की ओर देखा। यशस्विनी कृष्णा भी उन सबको देख रही थी। वहाँ बैठे हुए पाण्डवों ने द्रौपदी को देखकर आपस में भी एक-दूसरे पर दृष्टिपात किया और सबने अपने हृदय में द्रुपदराजकुमारी को बसा लिया। द्रुपदकुमारी पर द्दष्टि पड़ते ही उन सभी अमित तेजस्वी पाण्डुपुत्रों की सम्पूर्ण इन्द्रियों को मथकर मन्मथ प्रकट हो गया। विधाता ने पांचाली का कामनीय रुप स्वयं ही रचा और संवारा था। वह संसार की अन्य स्त्रियों से बहुत अधिक आकर्षक और समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाला था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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