महाभारत विराट पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-13

अष्टम (8) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: अष्टम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का राजा विराट की सभा में प्रवेश और राजा के द्वारा आश्वासन पाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर द्वितीय पाण्डव भयंकर बलशाली भीमसेन सिंह की सी मस्त चाल से चलते हुए राजा के दरबार में आये। वे अपने सहज तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने हाथ में मथानी, करछी और शाक काटने के लिए एक काले रंग का तीखी खार वाला छुरा ले रक्खा था। उनका वह छुरा टूटा-फूटा न था और न उसके ऊपर कोई आवरण था। वे यद्यपि रसोइये के वेश में थे, तो भी अपने उत्कृष्ट तेज से इस लोक को प्रकाशित करने वाले सूर्यदेव की भाँति सुशोभित हो रहे थे। उनके वस्त्र काले थे और उनका शरीर पर्वतराज मेरु के समान सुदृढ़ था। वे मत्स्यराज विराट के समीप आकर खड़े हो गये।

अपने पास आये हुए भीमसेन को देखकर उन्हें प्रसन्न करते हुए राजा विराट मत्स्य जनपद के निवासी समागत सभासदों से बोले- 'सिंह के समान ऊँचे कंधों वाला और मनुष्यों में श्रेष्ठ यह जो अत्यन्त रूपवान् युवक दिखायी दे रहा है, कौन है? आज से पहले कभी इसका दर्शन नहीं हुआ है। यह वीर पुरुष सूर्य के समान तेजस्वी है। मैं बहुत सोच-विचारकर भी इसके विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता। यहाँ आने में इस श्रेष्ठ पुरुष का आन्तरिक अभिप्राय क्या है? इस पर भी मैंने बहुत तर्क-वितर्क किया है; परंतु किसी वास्तविक परिणाम तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। इसे देखकर ही मैं सोचने लगा हूँ कि यह गन्धर्वराज है या देवराज इन्द्र, मेरी दृष्टि के सामने खड़ा हुआ यह युवक कौन है, इसका पता लगाओ और यह जो कुछ पाना चाहता है, वह सब इसे मिल जाना चाहिये; इसमें विलमब नहीं होना चाहिये’। राजा विराट के पूर्वाेक्त आदेश से प्रेरित हो दरबारी लोग शीघ्रतापूर्वक धर्मराज युधिष्ठिर के छोटे भाई कुन्तीपुत्र भीमसेन के समीप गये तथा राजा ने जैसे कहा था, उसी प्रकार उनका परिचय पूछा। तब महामना पाण्डुनन्दन भीम विराट के अत्यन्त निकट जाकर दीनतारहित वाणी में बोले- 'नरेन्द्र! मैं रसोइया हूँ। मेरा नाम बल्लव है। मैं बहुत उत्तम व्यंजन बनाता हूँ। आप मुझे अपने यहाँ इस कार्य के लिये रख लीजिये’।

विराट बोले- 'बल्लव! तुम रसोइये हो, इस बात पर मुझे विश्वास नहीं होता। तुम तो इन्द्र के समान तेजस्वी दिखायी देते हो। अपने अद्भुत रूप, दिव्य शोभा और महान् पराक्रम से तुम मनुष्यों में कोई श्रेष्ठ पुरुष अथवा राजा प्रतीत होते हो।' भीमसेन ने कहा- महाराज! मैं रसोई बनाने वाला आपका सेवक हूँ। मैं भाँति-भाँति के व्यंजन बनाना जानता हूँ, जिनका बनाना केवल मुझे ही ज्ञात है। मेरे बनाये हुए व्यंजन उत्तम श्रेणी के होते हैं। राजन्! पहले महाराज युधिष्ठिर ने भी उन सब प्रकार के व्यंजनों का आस्वादन किया है। इसके सिवा शारीरिक बल में मेरी समता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। भूपाल! मैं सदा कुश्ती लड़ने वाला पहलवान हूँ; हाथियों और सिंहों से भी भिड़ जाता हूँ। अनघ! मैं सदा आपको प्रिय लगने वाला कार्य करूँगा।' विराट बोले- 'बल्लव! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम अपने को भोजन बनाने के काम में कुशल बताते हो, तो मेरी पाकशाला में रहकर वही करो। किंतु मैं यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं समझता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई समूची पृथ्वी का शासन करने के योग्य हो। तथापि जैसी तुम्हारी रुचि है है, मैंने वैसा किया है। तुम मेरी पाकशाला में अग्रणी होकर रहो। जो लोग वहाँ पहले से नियुक्त हैं, मैंने तुम्हें उन सबका स्वामी बनाया।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार भीेमसेन पाकशाला में नियुक्त हो राजा विराट के अत्यन्त प्रिय व्यक्ति होकर रहने लगे। उस राज्य के किसी भी मनुष्य ने उनका रहस्य नहीं जाना और न उस पाकशाला के कोई सेवक ही उन्हें पहचान सके।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में भीमप्रवेश विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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